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आचार्य श्रोजिनमणिसागरसूरि
[ भंवरलाल नाहटा]
श्रीक्षमाकल्याणजी महाराज के संघाड़े में श्रीजिनमणि- (द्वितीय) कृत 'आत्मभ्रमोच्छेदन भानु' नामक ८० पृष्ठ की सागरसूरिजी महाराज एक विशिष्ट विद्वान, लेखक, शान्त- पुस्तिका को विस्तृत कर ३५० पेज में उन्हीं के नाम से मूर्ति और सत्क्रियाशील साधु हुए हैं। वे निस्पृह, त्यागी प्रकाशन करवाया, यह घटना आपकी निःस्वार्थता और और सुविहित क्रियाओं, विधि-मर्यादाओं के रक्षक थे। उदारता को प्रकट करतो है। आपका जन्म संवत् १९४३ में रूपावटी गांव के पोरवाड़ उस समय समेतशिखरजी के अधिकार को लेकर गुलाबचन्दजी की पत्नी पानीबाई की कुक्षि से हुआ। श्वेताम्बर और दिगम्बर समाज में बड़ा भारी केस चल आपका मनजो नाम था और मनमौजी ऐसे थे कि साधुओं रहा था. उधर सरकार अपनी सेना के लिये बूचड़खाना के पास तो नहीं जाते पर सांपों से खेलते थे, उन्हें उनका खोलना चाहती थी। श्वे० समाज की ओर से पैरवी करने कोई भय नहीं था। एक वार गाँव वालों के साथ सिद्धा- वाले कलकत्ता के राय बद्रीदासजी थे। उन्होंने कार्य सिद्धि चलजी यात्रार्थ चैत्रोपूनम पर गये और वहाँ पर आपको के लिये अध्यात्मिक शक्ति को आवश्यकता महसूस की और अपूर्व शान्ति मिली। आपका हृदय आत्मकल्याण करने देवो सहायता प्राप्त करने के लिये साधु समाज से निवेदन
और प्रभु के मार्ग पर चलने के लिये लालायित हो गया। किया। समय इतना कम था कि पैदल पहुँचना सम्भव माता-पिता वृद्ध थे, लोगों ने गाँव जाकर कहा-माता नहीं था। सुमतिसागरजी के पास यह प्रस्ताव आया तो पिता आये पर मनजी तो अपनी धुन के पक्के थे भगवान उन्होंने मणिसागरजो को माननीय गुलाबचंदजी ढड्ढा और के समक्ष सर्व त्याग का ब्रत ले लिया था। माता-पिता धनराजजी बोथरा के साथ रेल में सम्मेतशिखरजी भेज को निरुपाय होकर आज्ञा देनी पड़ो। आपने सं० १९६० दिया । मणिसागरजी की तरुणावस्था थो, धुन के पक्के और वैशाख सुदि २ को सिद्धाचलजी में मुनि सुमतिसागरजी के गुरु आम्नाय के बल पर उन्होंने तपश्चर्यापूर्वक सम्मेतपास दीक्षा लो। दीक्षा से दो दिन पूर्व एक वृद्ध मुनिराज शिखरजी पर जाकर जो अनुष्ठान किया, उससे श्वेताम्बर ने कहा-तुम तपागच्छ के पोरवाड़ हो, खरतरगच्छ में समाज को पूर्ण सफलता प्राप्त हो गई। समाज में इनकी क्यों दीक्षा लेते हो! पर उन्होंने सोचा धर्म के नाम पर बहुत बड़ी प्रतिष्ठा बढी, कलकत्ता संघ ने इन्हें कलकता यह भेद बुद्धि क्यों ? मुझे आत्म कल्याण करना है, शास्त्रों का बुलाया और छः वर्ष कलकत्ता बिताये । अनुष्ठान के लिये अध्ययन करके सही मार्ग पर चलना हो श्रेयस्कर है न कि रेल में शिखरजी आने का दण्ड प्रायश्चित मांगा तो उस गड्डर प्रवाह से। उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ समय के महामुनि कृपाचन्दजी, आदि खरतरगच्छ एवं तपाकिया ओर सं० १९६४ में तो संघ के आग्रह और उपकार गच्छ के मुनियों की ओर से निर्णय मिला कि यह दण्ड देने बुद्धि से गुरु-शिष्यों ने रायपुर और राजनांदगाँव अलग का काम नहीं, शासन प्रभावना के कार्य में साधुजोवन के अलग चातुर्मास किया। योगिराज श्रीचिदानन्दजी उपवासादि तथा ईर्यापथिको नित्य-क्रिया ही पर्याप्त है ।
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