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खरतरगच्छ परम्परा और चित्तौड़
[ रामवल्लभ सोमानी ]
मेवाड़ का जैनधर्म से सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन काल से था। बड़ली के वीर सं० ८४ के लेख में मध्यमिका नगरी का उल्लेख है ' । इवेताम्बर परम्परा के अनुसार यहां कई उल्लेखनीय साधु हुये हैं । इनमें सिद्धसेन दिवाकर, और हरिभद्रसूरि बड़े प्रसिद्ध हुये हैं । हवीं शताब्दी में कृष्णर्षि २ नामक एक जैन साधु बड़े विख्यात हुए हैं । इन्होंने चित्तौड़ में कई श्रावकों को जैन धर्म में दोक्षित किया, इस समय चित्तौड़ में श्वेताम्बरों के साथ-साथ दिगम्बरों का भी प्राबल्य था । महारावल अल्लट के शासनकाल में श्वेताम्बरों को राज्याश्रय मिलना शुरू हुआ था । इस समय कई श्वेताम्बर मन्दिर बने जिनकी प्रतिष्ठा संडेरगच्छ के यशोभद्रसूरि ने को थो । समय चैत्यवासियों का बड़ा प्रबल प्रचार था ।
उस
खरतरगच्छ के साधुओं का प्रारम्भ में जालोर, गुजरात आदि क्षेत्रों में अच्छा प्रचार था । उस समय ये चन्द्रगच्छीय कहलाते थे । मेवाड़ के चित्तौड़ में सबसे अधिक सम्पर्क इस गच्छ के जिनवल्लभसूरिका हुआ ये प्रारम्भ में चैत्यवासी थे और आसिका दुर्ग के कुर्चपुरीय गन्छ के जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । ये पाटन में अभयदेवसूरि के पास शिक्षार्थ आये थे । इन्होंने चैत्यवासियों को शास्त्र विरोधी प्रक्रियाओं से अप्रसन्न होकर उसे त्यागकर अभयदेवसूरि से फिर से दीक्षा ग्रहण को थी । यह घटना वि०
(१) पूर्णचन्द्र नाहर जैन लेख संग्रह भाग १ पृ० T૭ (२) अगरचन्द्र नाहटा शोधपत्रिका वर्ष १ अक १ में लेख (३) लेखक द्वारा लिखित 'महाराणा कुम्भा' पृ० १६६ वीरभूमिचित्तौड़ पृ० ११६ । (अपभ्रं शकाव्य(४)
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त्रयी की भूमिका ४) ।
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सं० ११३८ के बाद सम्पन्न हुई थी क्योंकि इस संवत् में लिखो “विशेषावश्यक टोका" की प्रगस्ति में जिनवल्लभसूरि ने अपने आपको जिनेश्वरसूरि का शिष्य वर्णित किया है । ये घूमते-घूमते चित्तौड़ आये। यहां चेत्यवासियों के विरोध के कारण ये चण्डिका के मठ में ठहरे । ये कई शास्त्रों के ज्ञाता थे । अतएव शीघ्र ही इनको बड़ी प्रसिद्धि हो गई। इनके कई उपासक भी हो गये। इनमें श्रेष्ठि बहुदेव साधारण, वोरक, रासल मानदेव आदि थे। जो कुछ धर्कटजाति के और कुछ खंडेलवाल थे । इन्हीं श्रेष्ठियों के सहयोग से जिनवल्लभसूरि ने चित्तौड़ में विधिचैत्य को स्थापना की । इस समय एक विस्तृत प्रशस्ति भी खुदाई जिसका नाम "सप्तसप्तिका " रक्खा गया है। इसमें ७७ श्लोक हैं । इसकी प्रतिलिपि आदरणीय नाहटाजी की कृपा से मुझे प्राप्त हुई है। इस प्रशस्ति में चित्तौड़, नागौर आदि कई स्थानों पर सम्भवतः खुदाया गया था ।
खरतरगच्छ परम्परा के अनुसार एक बार नरवर्मा के दरबार में एक समस्या पूर्ति हेतु आई । इसकी नरवर्मा के पंडितगण पूर्ति नहीं कर सके तब चित्तौड़ में इसे जिनवल्लभसूरि के पास भेजी । इन्होंने तत्काल पूर्ति करके भिजवा दो । कालान्तर में जब वे घूमते-घूमते धारानगरी पहुँचे
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चित्रकूट नरवर नागपुर महपुरादिसम्बन्धिनि सुप्रशस्तिषु लिखित्वा च निदर्शितानि... " ( अपभ्रंशकाव्यत्रयी में प्रकाशित चर्चरी गाथा १२१ )
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