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। १७१ ] परिहरि लोयपवाहु पयट्टिउ विलिविसउ तालरासक एवं विविध वाद्य-ध्वनियों का भा वादन होता पारतंति सहु. जेण निहोडि कुमग्गसउ । था। विविध प्रकार से लोग अपने भक्ति-भावों को प्रददसिण जेण दुसंघ-सुसंघह अंतरउ शित करते थे। कवि का कथन है--जिन मन्दिरों में वमाणजिणतित्थह कियउ निरन्तरउ ॥१०॥ उचित स्तुति और स्तोत्र पढ़े जाते थे, जो जिनसिद्धान्तों के दूसरी रचना उपदेश (धर्म) रसायनरास है। इस पर अनुकुल होते थे । श्रद्धाभरित होने पर भी रात में तालभी श्रीजिनपालोपाध्याय की वृत्ति मिलती है। यह पद्ध- रासक प्रदर्शित नहीं होता था। दिन में भी महिलायें पुरुषों ड़ियाबन्ध रचना है। वृत्ति से स्पष्ट है कि कवि ने लोक- के साथ लगुडरास नहीं खेलती थीं। प्रवाह के विवेक को जाग्रत करने के हेतु सद्गुरु स्वरूप, उचिय थुत्ति थुयपाढ पढिज्जहिं चैत्य विधिविशेष, तथा धर्मरसायनरास की रचना की।
जे सिद्ध तिहिं सहु संधिज्जहिं । सद्गुरु के सम्बन्ध में उसके लक्षणों का निर्देश करता हुआ
तालारासु वि दिति न रयणिहिं कवि कहता है
दिवसि वि लउडारसु सहँ पुरिसिहि ॥६॥ सुगुरु सु वुच्चइ सच्चउ भासइ
धार्मिक लोग केवल नाटकों में नृत्य करते थे और चक्रवर्ती परपरिवायि नियरु जसु नासइ ।
भरत तथा सगर के अभिनिष्क्रमण का एवं अन्य चक्रवर्ती सव्वि जीव जिव अप्पउ रक्खइ
चरितों का प्रदर्शन करते थे। मुक्खु मग्गु पुच्छियउ जु अक्खइ ॥४॥
धम्मिय नाडय पर नच्चिज्ज हिं अर्थात् जो सच बोलता है उसे सुगुरु कहते हैं। जिस
भरहसगरनिक्खमण कहिज्जहि । के वचनों को सुनकर अन्य वादियों का भय नष्ट हो जाता
चक्कवटिबलरायहं चरियई है, सभी जीवों की रक्षा अपनी रक्षा की भांति करने लगते
नविवि अंति हंति पव्वइयई ॥३७॥ हैं और मोक्ष-मार्ग के पूछने पर जो सभी को बतलाता है इस प्रकार कवि ने यह बताया है कि इन विविध रासों, वह सुगरु है। तथा
नृत्य-गानों का अभिप्राय मनोरंजन न होकर अन्त में ___ जो जिनवचनों को ज्यों का त्यों जानता है. द्रव्य वैराग्य-भावना की अभिव्यंजना रही है । अतएव माघमाला क्षेत्र, काल और भाव को भी जानता है और उनके अन- जलक्रीड़ा तथा झूला-पालना तीनों जिनालय में करना सार वर्तन भी कराता है तथा उन्मार्ग में जाते हुए लोगों निषिद्ध है। घर पर किये जाने वाले कार्य भी जिन-मंदिर को रोकता है (वह सुगुरु है)।
में करना उचित नहीं है। जो जिणवयणु जहट्ठिउ जाणइ
माहमाल - जलकोलंदोलय दव्वु खितु कालु वि परियाणइ ।
तिवि अजुत्त न करति गुणालय । जो उस्सग्गववाय वि कारइ
बलि अत्थमियइ दिणयरि न धरहि उम्मग्गिण जणु जंतउ वारइ ॥५॥
घरकज्जई पुण जिणहरि न करहिं ॥३६॥ इस रचना में कुल ८० पद्य हैं । कवि के युग में माघमाला लोकव्यवहार के सम्बन्ध में उन के विचार थे-कि जो जलक्रीड़ा, लगुडरास तथा विविध नृत्य-गानों का चैत्यगृहों बेटा-बेटियों को परणाते हैं वे समानधर्म वाले घरों में में विशेष प्रचार था। मन्दिरों में नाटक भी खेले जाते थे। विवाह रचते हैं। क्योकि यदि विमत वालों के घर
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