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। १७६ ] सम्बन्ध किया जाता है तो निश्चय से सम्यक्त्व की हानि कवि का यह कथन कितना सुन्दर है कि यह संसार धतूरे के होती है। आचार्य श्री का यह भी कथन है कि अल्प धन उस सफेद फूल के समान सुन्दर तथा आकर्षित करने वाला से ही संसार के सावद्य कार्य सम्पन्न हो जाते हैं। धन है, जो पौधे में लगा हुआ मनोहर लगता है । किन्तु जब केवल मनुष्य के कुटुम्ब के निर्वाह का साधन है। अतएव उसका रस पिया जाता है तब सब सूना लगता है। मनुष्य धार्मिक कार्यो में धन का सदुपयोग कर सभ्यक्त्त्व की प्राप्ति का आयुष्य थोड़ा है । अतएव गुरुभक्ति कर मनुष्यजन्म का प्रयत्न करना चाहिये। सम्यक्त्व की प्राप्ति प्रतिक्रमण, सफल बनाना चाहिए। वन्दना, नवकार को सज्झाय आदि से होती है। उनके हो
जहिं धरि बंधु जुय जुय दीसइ शब्दों में
तं घरु पडइ वहंतु न दोसइ । पडिकमणह वंदणइ आउल्ली
जं दढबंधु गेहु तं बलियउ चित धरंति करेइ अभुल्ली
जडि भिज्जंतउ सेसउ गलिउ ॥२६॥ मणह मज्झि नवकारु वि ज्झायइ
अर्थात जिस घर में बान्धव अलग-अलग दिखलाई तासु सुटछु सम्मतु वि रायइ॥१॥ अपभ्रंश की तीसरी रचना कालस्वरूपकूलकम है। यद्यपि
पड़ते हैं वह घर नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार से बन्धु
बान्धवों के एक घर से अलग-अलग हो जाने पर वह घर यह बत्तीस छन्दों में निबद्ध लघु रचना है, किन्तु विषय और भावों की दृष्टि से यह सशक्त रचना है। जन सामान्य के ।
फूट जाता है उसी प्रकार संयमी जनों से रहित घर भो लिए यह रचना अत्यन्त उपयोगी है। रचना सरल और
विनष्ट हो जाता है । दृढ़बन्ध होने पर भी जिस घर को नोंव
में पानी हो वह गल कर नष्ट हो जाता है । अतएव भावपूर्ण है। इसपर सूरप्रभ उपाध्याय की लिखी हुई वृत्ति भो साथ में प्रकाशित है।
लौकिक समृद्धि प्राप्त करना हो तो घर को बुहारी की
भाँति बाँधना चाहिए। यदि बुहारी का एक-एक तिनका मनुष्य जन्म के सफल न होने का कारण बताता हुआ
अलग-अलग कर दिया जाये तो फिर उससे कैसे बुहारा कवि कहता है-यह जन मोह की नींद में सो रहा है. कभी
जा सकता है? जागता ही नहीं है। मोहनींद में से उठे बिना यह शिवमार्ग में नहीं लग सकता । यदि किसी सुखकर उपाय से कोई
कजउ करइ बुहारी बद्धो गरु उसे जगाता है तो उसके वचन उसे अच्छे नहीं लगते।
सोहइ गेह करेइ समिद्धी। मोहनिद्द जण सुत्तु न जग्गइ
जइ पुण सा वि जुयं जय किजइ तिण उटि ठवि सिवमग्गि न लग्गइ।
ता किं कज तीए साहिजइ ॥२७॥ जइ सुहत्थु कु वि गुरु जग्गावइ
युगप्रवर आचार्य जिनदत्तसूरिजो के पट्टधर शिष्य तु वि तव्वयणु तासु नवि भावइ ॥५॥ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि के अष्टमशताब्दी समारोह के जिस प्रकार हिन्दी भाषा में निर्गुण सन्तों ने सिर मुंडा लेने शुभ सन्देश के रूप में आज भी उनके वे वचन अत्यन्त महमात्र का निषेध किया है उसी प्रकार आचार्य जिनदत्तसूरि त्वपर्ण तथा प्रेरणादायक हैं कि हम सबको ( सभी सम्प्रभी कहते हैं कि लोक में बहुत से साधु सन्यासी मुण्डित दायों को) अब एक जुट होकर बुहारो की भाँति जिनशासन दिखलाई पड़ते हैं, किन्तु उनमें राग द्वेष भरपूर विलसित के एक सत्र में बंध जाना चाहिए, ताकि मानवता एवं धर्म है। इसी प्रकार बहुत से शास्त्र पढ़ते हैं, उनका निर्वचन की अधिक से अधिक सेवा हो सके । तथा व्याख्यान करते हैं, किन्तु परमार्थ नहीं जानते हैं।
पताउनके शब्द हैंबहु य लोय लुंचियसिर दोसहिं
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, एम० ए०, पर रागद्दो सिहि सहुँ विलसहिं ।
पी-एच. डी०, पढहिं गुणहि सत्यइ वक्खाणहि
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, परि परमत्थु तित्थु सु न जाणहि ॥७॥
नीमच (मन्दसौर) म. प्रा
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