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ऐतिहासिक भूलों से शिक्षा ही ले सके हैं और न पूर्वजों की स्थिति बदली और उनके प्रबल प्रयत्नों का यह परिणाम विशेषताओं से लाभ हो उठा सके हैं।
आया कि जैन-मन्दिर चैत्यवासियों के प्रभाव से मुक्त हुए। खरतरगच्छ की स्थापना के समय के भारत के इति- इतना ही नहीं, मन्दिरों का द्रव्य, देव-द्रव्य समझा जाकर हास का गहराई से अध्ययन होना आवश्यक है । वह समय उसका उपयोग मन्दिरों की व्यवस्था, सुरक्षा और पुनभारत के इतिहास में इसलिये महत्वपूर्ण है कि उस समय निर्माण में ही होने लगा। फलस्वरूप जैन मन्दिरों की भारत में आपसी झगड़े और द्वेष बढ़कर छोटे-छोटे राजा सुव्यवस्था हो सको, वे सुरक्षित रह सके । आज हमारी अपने अहंकार के प्रदर्शन के लिये एक दूसरे का नाश करने प्राचीन वास्तुकला को जिस रूप में हम देखते हैं उसका पर तुले हुए थे। जब देश में धर्म रूढ़िगत आचार बन कारण चैत्यवासियों के प्रभाव से जैन मन्दिरों को मुक्त
। है. और उसे साम्प्रदायिक लोग महत्व देकर चरित्र- कराना है और इस महान कार्य को खरतरगच्छ के आचार्यों धर्म एवं नैतिकता को भूल जाते हैं तब प्रजा अनैतिक ने कर जैनधर्म और भारतीय संस्कृति को बहुत बड़ी बनती है, उसमें दुर्बलता आती है। धर्म के ऊंचे सिद्धान्तों सेवा की। की पूजा तो होती है लेकिन वे जीवन से लुप्त हो जाते हैं। मंदिरों, मठों, विहारों को चरित्रहीन व्यक्तियों के मनुष्य स्वार्थी बनकर धर्म का उपयोग भौतिक सुख प्राप्ति प्रभाव से बचाने का काम कितना महत्वपूर्ण था यह जब में करने लगता है। उसके गुण या विशेषतायें दुर्गुण बन हम अन्य सम्प्रदाय के उपासना-स्थलों व मंदिरों की बातें जाती हैं। साधु-सन्तों की विद्या, शक्ति, साधना विकृत सुनते हैं तब पता चलता है। हंसा दामोदरलालजी के बनती है। राजाओं का शौर्य व शक्ति भो आत्मनाश का विवाह जैसी अनेक घटनाए घटती हैं। मदिरों का करोड़ों कारण बनती है। वे समाज और राष्ट्र को दुर्बल बनाते हैं। रुपया जब इन धर्मगुरुओं के भोग-विलास या बड़प्पन के इसलिये ऐसे समय में राष्ट्र के चरित्र निर्माण का प्रश्न मह- दिखावे में खर्च होता है तब धर्मस्थान धर्म-साधना के नहीं त्वपूर्ण बन गया था । यदि राष्ट्र में फिर से नेतिकता प्रति- पर भ्रष्टाचार के स्थान बन जाते हैं। ष्ठित नहीं होती और हम उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण खरतरगच्छ के इस कार्य ने जैन साधुओं को फिर से नहीं अपनाते तो राष्ट्र को विदेशियों के आक्रमण से बचा संयमधर्म को ओर मोडा और जैनधर्म को बौद्धधर्म की नहों पावेंगे, ऐसी दृष्टिवाले जो कुछ दीर्घ-द्रष्टा थे उनमें तरह भारत से लुप्त होने से बचाया। इतना ही नहीं, से खरतरगच्छ को स्थापना करने वाले आचार्य व मानसूरि जैन समाज को एक और बहुत बड़ी सेवा ओसवाल जाति थे। जिन्होंने संयम धर्म को अपना कर उसका प्रचार करने को प्रतिबोध देकर उन्हें जैनधर्म में दीक्षित करके की थी। का प्रबल प्रयत्न किया और चैत्यवासियों को संयम और उस ओसवाल जाति ने जैन समाज को ही नहीं, भारत विहित धर्मपालन को तरफ आकृष्ट करने लगे।
तथा भारतीय संस्कृति के विविध क्षेत्रों में जो सेवा की उस प्रारम्भ में यह काम बहुत कठिन था। क्योंकि चैत्य- विषय में प्रसिद्ध इतिहासज्ञ मुनि जिनविजयजो ने जो कहा वासियों के पास साधन और सत्ता का बल था। और वह यहां देने जैसा है:श्रमण संस्कृति को विशुद्ध और तेजस्वी बनाने वालों के पास 'श्वेतम्बर जैन संघ जिस स्वरूप में आज विद्यमान है. तो आध्यात्मिक त्याग और सहन की शक्ति के सिवाय उस स्वरूप के निर्माण में खरतरगच्छ के आचार्य, यति, भौतिक साधन थे ही नहीं. पर आहिस्ता-आहिस्ता परि- और श्रावक समूह का बहुत बड़ा हिस्सा है। एक तपा
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