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खरतरगच्छ की भारतीय संस्कृति को देन
[ लेखक-रिषभदास रांका ]
भारत में जैन मन्दिरों की व्यवस्था और स्वच्छता सफलता भी प्राप्त हुई, उनके बाद भी वह संघर्ष चलता बहुत अच्छी समझी जाती है क्योंकि जैन मन्दिर की रहा । उस काल में चेत्यवासियों का बहुत प्रभाव था । व्यवस्था किसी ऐसे सन्त-महन्त के हाथ में नहीं होती जो चावड़ा तथा चौलुक्य वंश के गुरु थे। जैन धर्म को जिसमें उनका स्वार्थ या सत्ता जुड़ी हो। जिन धर्म या पतन के गर्त से बचाने तथा प्राचीन श्रमण परम्परा और सम्प्रदायों में मन्दिर या मठों की व्यवस्था सन्त-महन्तों की आचार की प्रतिष्ठापना करने का काम प्रभावशाली ढंग होती है वहाँ क्या होता है इसके किस्से अखबारों में छपते से जिन महापुरुष ने किया, जिन्होंने 'खरतरगच्छ' की पदवी हैं और उनमें चलनेवाले दुराचार या विलासिता की कहा- प्राप्त कर खरतरगच्छ की परम्परा चल ई। वे थे श्रीजिनेनियाँ पढने या देखने को मिलती हैं। कई इतिहासज्ञों का स्वरसरि और उनकी परम्परा के आचार्य जिनवल्लभ, कहना है कि बौद्धों का इस देश से निष्काल या प्रभाव कम जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि आदि। इन्होंने होने के कारणों में राजाओं की कृपा तथा विहारों की चैत्यवास का विरोध एवं पुनः कठोर जैन श्रमण आचार की विलासिता और दुराचार भी एक कारण था । बौद्धों को प्रतिष्ठापना की। जैन श्रमण संस्था को विशुद्ध संयमयुक्त तरह जैनियो में यह विकृति न आई हो ऐसी बात नहीं। तथा तेजस्वी बनाने का प्रयास किया। विशुद्धि से समाज ८वीं शताब्दी में वे भी पतन की ओर तेजी से बढ़ रहे थे। में आई हुई चैत्यवास की विकृति को दूर करने के प्रबल आचार्य हरिभद्रसूरि ने लिखा है कि "कई जैन साधु प्रयास किये । मन्दिरों में रहने लग गये थे, मन्दिरों के धन का अपने भोग- खरतरगच्छ ने जो जैन संस्कृति की सेवा की है उसका विलास में उपयोग करते, मिष्टान्न तांबूलादि से जिह्वा को ठीक मूल्यांकन जैन समाज में भी नहीं हो पाया । कारण तृप्त करते, नृत्य संगीत का आनन्द लूटते । केश-लुचन का अनेक हैं उसमें से एक कारण गच्छ और सम्प्रदाय का त्याग कर दिया था। स्त्री-संग को वे सर्वथा त्याज्य नहीं अभिनिवेश है। जब सम्प्रदाय या गच्छों में विचारों की मानते, धनिकों का आदर करते और ऐसी बहुत सी बातें भिन्नता रहते हुए भी एक दूसरे के गुणों और विशेषताओं जो जैनाचार के विपरीत थीं उसे करने लग गये थे। से लाभ उठाया जाता है तब ये गच्छ अथवा सम्प्रदाय एक धनिकों तथा राजाओं पर उनका अत्यन्त प्रभाव था उसका दूसरे के लिये लाभदायक होते हैं पर इसके स्थान में उनमें उपयोग वे अपना सम्मान बढ़ाने तथा सुखोपभोग में करते। जब प्रतिस्पर्धा या ईर्ष्या का भाव निर्माण होता है तब हाथियों पर सवारी और छत्र-चामर आदि द्वारा राजाओं एक दूसरे से लाभ लेना तो दूर, वे एक दूसरे की हानि की तरह उनका मान-सम्मान होता था।
पहुंचाने में भी कसर नहीं छोड़ते। इस साम्प्रदायिक अभिश्री हरिभद्राचार्य जैसे प्रतापी तथा प्रभावशाली निवेश ने जैन समाज को बहत हानि पहुँचाई है। हम न आचार्य ने इस स्थिति को सुधारने का प्रयल किया. कुछ तो अपना निष्पक्ष और ठीक इतिहास ही लिख पाये हैं, न
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