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१४ वि० सं० १३३४ में श्रेष्ठि आल्हाक ने चित्तौड़ में की प्रशिस्त वाली ताऽपर्य परिशुद्धि पुस्तक मिली है। पार्श्वनाथ चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराया था, इस समय इन्होंने देलवाड़ा में समाचारी मिमांमिली है। इस समय चित्तौड़ में खरतरगच्छ के अतिरिक्त चैत्रगच्छ वृहद्गच्छ
खरतरगच्छ के जयसागर नामक एक प्रसिद्ध पडित हुये थे। और भर्तृ पुरीयगच्छ के साधु भी कार्य कर रहे थे। प्रसिद्ध इसी प्रकार मेरुसुन्दर नामक एक उपाध्याय का भी उल्लेख शृगार चंवरी का निर्माण भी इसी काल में हुआ था। मिलता है जिसने कई "बालावबोध'' लिखे थे ।
अल्लाउद्दीन खिलजी के आक्रमण से चित्तौड़ के कई मन्दिर महाराणा कुम्भा के शासन काल में शृगारचंवरी विध्वंश हो गये थे किन्तु महाराणा हमीर के राज्यारोहण के का वि० सं० १५०५ का भंडारी बेला का शिलालेख बाद स्थिति में बड़ा परिवर्तन हुआ। प्रसिद्ध मंत्री रामदेव बड़ा प्रसिद्ध है। इसी मंदिर में वि० सं० १५१२ और नवलखा खरतरगच्छ का श्रावक था। इसने करेड़ा जैन १५१३ के ४ शिलालेख और लग रहे हैं जिनमें जिनमन्दिर में बड़ा प्रसिद्ध दीक्षा महोत्सव कराया था। यह सुन्दरसूरि द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है। वि० सं० वि० सं० १४३१ में सम्पन्न हुआ था। और इसका विज्ञप्ति १५३८ का एक और लेख "रामपोल" पर लगा रहा है। लेख भी प्रकाशित हो गया है। इस परिवार ने कई खरतर- इसमें खरतरगच्छ जिनहर्षसूरि का उल्लेख है। इनके गच्छके आचार्यों की मूर्तियां भी देलवाड़ा (देवकुल पाटक) में अतिरिक्त जयकीर्ति महोपाध्याय, हर्षकुंजरगणि रत्नशेखरबनवाई । इसकी पत्नी मेलादेवी ने भी कई ग्रन्थ लिखवाये। गणि ज्ञानकुंजरगणि आदि का भी उल्लेख है।४ । वि० सं० उस समय देलवाड़ा में इस परिवार ने एक ग्रन्थ भंडार भी १५३८ के एक मूर्ति के लेख में भंडारी भोजा का स्थापित किया था । रामदेव के २ पुत्र थे (१) सहणा
उल्लेख है। इसकी प्रतिष्ठा जिनहर्षगणि ने की थी।
खरतरगच्छ का एक वृहद् शिलालेख वि० सं० १५५६ का और (२) सारंग। सहणा के वि० सं० १४६१ के तीन
है। यह वृहद् शिलाओं पर उत्कीर्ण था। इसमें से एक शिला मूर्ति लेख मिले हैं। जिनमें खरतरगच्छ के जिनचन्द्रसूरि के श्लोक सं० ८३ से १२८ का ही अंश वाला मिला है। इसमें शिष्य जिनसागरसूरि द्वारा प्रतिमाओं को प्रतिष्ठा का महाराणा रायमल के राज्य का उल्लेख है।१५ इसमें जिनउल्लेख मिलता है। वि० सं० १४१४ के नागदा के हर्षगणि जयकीति उपाध्याय आदि का उल्लेख है। वि० सं० मति लेख में और वि० सं० १५०५ के शृगार १५७३ को महाराणा सोगा के समय लिखी "खंडन विभक्ति" चंवरी चित्तौड़ के शिलालेख में कई आचार्यों के नाम हैं१२ नामक ग्रन्थ की प्रशस्ति देखने को मिली। इसे खरतरगच्छ यथा-जिनराजसरि, जिनवर्धन, जिनचन्द्र, जिनसागर, के कमलसंयमोपाध्याय ने लिखा था। यह ग्रन्थ अब पाटण जिनसुन्दर, जिनहर्ष आदि जिनराज का जन्म वि० सं० भंडार में है।' १४३३ और मृत्यु वि० सं० १४६१ में हुई। इनकी महाराणा बणवीर के समय श्रेष्ठि सूरा का उल्लेख मूर्ति देलवाड़ा में स्थापित की गई थी। इनके समय मिलता है। उस समय विभिन्न चैत्य-परिपाटियों में की वि० सं० १४५० में लिखी “आचारांग चूर्णि" खरतरगच्छ के शांतिनाथ के मन्दिर का उल्लेख मिलता है। पुस्तिका मिली है जिसकी प्रतिलिपि मेरुनन्दन उपाध्याय ने इस प्रकार दीर्घ काल तक चित्तोड़ खरतरगच्छ का की थी। जिनवर्द्धन के समय की लिखी वि० सं० १४७१ केन्द्र रहा है।
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(१०) महाराणा कुम्भा पृ० ३०५३३०-३३२ (११) उक्त पृ० ३७०-७१ (१२) उक्त पृ० ३.११ ७२ (१३) उक्त पृ० २१५-१६
(१४) वीरभूमी चित्तौड़ पृ० २४६ (१५) उक्त पृ० २४६-४७ ११६) उक्त पृ० २५७
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