________________
खरतरगच्छ की महान् विभूतिदानवीर सेठ मोतीशाह
[लेखक-चाँदमल सीपाणी ]
मतिमान धर्मरूप संघपति स्व० सेठ मोतोशाह ने "मोतीशाह सेठ' की ट्रॅक यहाँ याद आये बिना नहीं धामिक संस्कार के बल पर प्राप्त की हुई लक्ष्मी का उपयोग रहती। शाश्वतगिरि पर गहरी खाई को पूरकर, जिस रंग-राग में या संसार के क्षण-भंगुर विलासों में नहीं मङ्गल धाम का निर्माण किया वह लाखों आत्माओं की करके, आत्म श्रेय के अपूर्व साधन सम, स्वपर का एकांत आत्म कल्याण को-जीवन-सफल करने को लक्ष्मी मिली कल्याण करनेवाले मार्ग पर उपयोग किया। स्व. मोती हो तो ऐसे प्रशस्त मार्ग पर खर्च करने को प्रेरणा देने को शाह ने गृहस्थ जीवन में जैन शासन की प्रभावना के तथा मौजूद है। इसको देखकर कहे बिना नहीं रहा जाता कि जोवदया आदि के अनेक सुन्दर कार्य अपने अमुल्य मानव सेठ मोतीशाह चाहे देह रूप में न हो, परन्तु ऐसी अद्भुत जीवन में पुरुषार्थ पूर्वक आत्मा का ऊर्चीकरण कर अपने कृति के सर्जकरूप में अमर है। जीवन को सफल किया।
सेठ मोतीशाह में दान का गुण असाधारण था। बम्बई के श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ तथा गोडीजी
विक्रम को उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बम्बई के जैन पार्श्वनाथ के मंदिरों को देखकर, सहसा मोतीशाह सेठ को धन्यवाद दिये बिना नहीं रहा जाता। इसके सिवा प्रति
समाज में जो जागृति व प्रभाव पैला उसमें उनके यश का वर्ष का तिकी-चत्रीपूर्णिमा पर सम्पूर्ण बम्बई की जैन
पर बहुत बड़ा श्रेय इन्हीं को है। कर्जदार के रूप में जीवन
र
यात्रा को शुरू करनेवाले व संवत् १८७१ में सारे कुटुम्ब जनता भायखला के श्रीआदिनाथ मंदिर पर जाती है।
में अकेले रह जानेवाले जिस व्यक्ति ने दानवीरता के जो यह देवालय व दादावाड़ी सेठ मोतीशाह ने ही बनवाये और इसके आसपास की विशाल जगह जैन समाज को दे
अनेक शुभ कार्य किये हैं, उसकी राशि अटठाईस लाख से
भी ऊपर जाती है । इसमें सबसे बड़ा काम जिनमें उन्होंने धन गये । इ.1 प्रकार बम्बई पांजरापोल के आद्य प्रेरक
व्यय किया वह है पालीताना के शत्रुजय पर्वत पर मोतीवआद्य संस्थापक और मुख्य दाता थे। उनका नाम आज
सहि ढूंक का काम । इस कार्य के निर्माण में ग्यारह लाख भी लोग दयावीर और दानवीर के रूप में स्मरण करते हैं।
एवं उनकी आज्ञा इच्छा के अनुसार प्रतिष्ठा महोत्सव में पांजरापोल को तन, मन और धन से सहयोग देकर अमर
सात लाख सात हजार मिलकर कुल अठारह लाख सात आत्मा सेठ मोतीशाह आज भी जीवित हैं। उस विशाल पांजरापोल का प्रत्येक पत्थर और ईट उनके जीते जागते
हजार खर्च हुआ। दो लाख रुपया बम्बई की पांजरापोल
के लिये खर्च किये। इनके सिा नीचे का वर्णन खास नमूने हैं।
ध्यान देने लायक है। यह सब उनकी धर्म भावना, अहिंसाकेवल बम्बई में हो नहीं सम्पूर्ण भारतवर्ष के आबाल वृद्ध नर-नारी और विदेश से आनेवाले पर्यटक जिसकी मय हृदय और तत्कालीन जनता को आवश्यकताओं पर
मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं ऐसी श्री शत्रुज्य पर की उनको तत्परता को बताते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org