Book Title: Manidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Manidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi

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Page 198
________________ ।१५) पुरातत्व और कला के प्रति आपको बाल्यकाल से ही किया है, फलस्वरूप खण्डहरों का वैभव एवं प्रस्तुत गहरी अनुरक्ति रही है । खोज की पगडण्डियां के प्रार- पुस्तक है।" म्भिक वक्तव्य में आप ने लिखा है कि "बचपन से ही मुझे उपरोक्त दोनों पुस्तकें सन् १९५३ में प्रकाशित हुई थी। निर्जन वन व एकांत खण्डहरों से विशेष स्नेह रहा है। 'खोज को पगडण्डियों को प्रस्तावना डा० हजारीप्रसाद अपनी जन्मभूमि जामनगर की बात लिख रहा हूं। वहां दिवेदी जैसे विद्वान ने लिखी थी। उन्होंने लिखा है "श्री का खण्डित दुर्ग ही मेरा क्रीडास्थल रहा है। आज से २२ मनि कान्तिसागरजी प्राचीन विद्याओं के मर्मज्ञ अनुवर्ष पूर्व की बात है-सरोवर के किनारे पर टूटे हुए सन्धाता हैं। मुनिजी प्राचीन स्थानों को देखकर स्वयं खण्डहरों की लम्बी पंक्ति थीं। जहां बारहमास प्रकृति आनन्द विह्वल होते हैं और अपने पाठकों को भी उस स्वाभाविक शृगार किये रहतो है । कहना चाहिये वे खण्ड आनन्द का उपभोक्ता बना देते हैं। उनकी दृष्टि बहुत ही हर संस्कृति, प्रकृति और कला के समन्वयात्मक केन्द्र थे। व्यापक एवं उदार है। जैन शास्त्रों के वे अच्छे ज्ञाता भी उनदिनों में गुजराती चौथी कक्षा में पढ़ता था। पढ़ने में मनिजी के कहने का ढंग भी बहुत रोचक है । बीच-बीच भारी परेशानी को अनभव होता था। शाला के समय में उन्होंने व्यंग विनोद की भी हल्की छींट रख दी हैं। अपने बस्ते लेकर हमलोग सरोवर तटवर्ती खण्डहरों में इतिहास को सहज और रसमय बनाने का उनका प्रयल छिपा देते और वहीं खेला करते। खण्डहर बनाने वालों के बहुत ही अभिनन्दनीय है।" प्रति उन दिनों भी हमारे बाल-हृदय में अपार श्रद्धा थी। जैन कल में उत्पन्न न होते हैं भी अल्पवय में मैंने जैन मनि करीब डेढ़ साल पहले जयपुर संघ के अनुरोध से वे दोक्षा अंगीकार की। सौभाग्यवश चातुर्मास के लिये बंबई लम्बा विहार करके पालोताना से जयपुर चौमासा करने जाना पड़ा। वहां प्राचीन गुजराती भाषा और साहित्य पहुँचे तो अस्वस्थ हो गये। उसी हालत में पर्युषणा के के गम्भीर गवेषक श्रीयुक्त मोहनलाल भाई दलीचन्द देसाई व्याख्यान आदि का श्रम अधिक पड़ा। तब से उनका एडवोकेट, भारतीय विद्या भवन के प्रधान संचालक-पुरा- शरीर क्षीण होने लगा। जयपुर संघ ने उपचार में कोई तत्वाचार्यमुनि श्रीजिनविजय और प्रख्यात पुरातत्वज्ञ डा. कमो नहीं रखी पर स्वास्थ्य गिरता हो गया और ता० २८ हंसमुखलाल धीरजलाल सांकलिया आदि अध्यवसायी सितम्बर को शाम को हृदयगति अवरुद्ध हो के स्वर्गवास हो अन्वेषकों का सत्संग मिला। उनके दीर्घ अनुभव द्वारा गया। जैन संघ ने एक नामी लेखक और उद्भट पुरातत्वज्ञ शोधविषयक जो मार्ग दर्शन मिला उससे मेरी अभिरुचि और विद्वान और प्रतिभाशालो मुनि को खो दिया जिसकी पूर्ति भी गहरी होती गयी। मेरे मानसिक विकाश पर और होनी कठिन है । मुनिजी के प्रति मैं अपनो हार्दिक श्रद्धांजलि कलापरक दृष्टिदान में उपर्युक्त विद्वत् त्रिपुटी ने जो श्रम अर्पित करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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