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महान् प्रतापी श्रीमोहनलालजी महाराज
[ भँवरलाल नाहटा ]
पंचमकाल में जिनेश्वर भगवान के अभाव में जिनशासन को अक्षुण्ण रखने में जितप्रतिमा और जैनागम दोनों प्रबल कारण हैं जिसकी रक्षा का श्रेय श्रमण परम्परा को है । उन्होंने हो अपने उपदेशों द्वारा श्रावक गृहस्थ वर्ग को धर्म में स्थिर रखा और फलस्वरूप सातों क्षेत्र समुन्नत होते रहे । सुदूर बंगाल जैसे हिंसाप्रधान देश में तो यतिजनों ने विचर कर जैन धर्मी लोगों को धर्म मार्ग में स्थिर रखा है । समय-समय पर आये हुए शैथिल्य को परित्याग कर शुद्ध साध्वाचार को प्रतिष्ठा बढाने वाले वर्तमान साधु-समुदाय के तीनों महापुरुषों ने कियोद्धार किया था । श्रीमद् देवचन्द्रजी, जिनहर्षजी आदि अनेक सुविहित साधुओं को परम्परा अब नहीं रही है पर क्षमाकल्याणजी महाराज जिनका साधु-साध्वी समुदाय खरतर गच्छ में सर्वाधिक है, के पश्चात् महान् प्रतापी तपोमूर्ति श्री मोहनलालजी महाराज का पुनीत नाम आता है । आपने पहले यदि दीक्षा लेकर लखनऊ में काफी वर्ष रहे फिर कलकत्ता- बंगाल में विचरणकर यहीं से वैराग्य में अभिवृद्धि होने पर तीर्थयात्रा करते हुए अजमेर जाकर फिर त्याग मार्ग की ओर अग्रसर हुए थे, उनका संक्षिप्त परिचय यहां दिया जाता है ।
महान् शासन प्रभावक श्री मोहनलालजी महाराज अठारहवीं शताब्दी के आचार्यप्रवर श्रीजिनमुखसूरिजी के विद्वान् शिष्य यति कर्मचन्द्रजी ईश्वरदासजी वृद्धिचन्द्रजीलालचन्दजो के क्रमागत यति श्रीरूपचन्दजी के शिष्यरत्न थे | आपका जन्म सं० १८८७ वैशाख सुदि ६ को मथुरा afra चन्द्रपुर ग्राम में सनाढ्य ब्राह्मग बादरमलजी
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की सुशीला धर्मपत्ती सुन्दरबाई की कुक्षि से हुआ था । आपका नाम मोहनलाल रखा गया, जब आप सात वर्ष के
हुए माता-पिता ने नागौर आकर सं० १८६४ में यति श्रीरूपचन्द्रजी को शिष्य रूपमें समर्पण कर दिया । यतिजी ने आपको योग्य समझकर विद्याभ्यास कराना प्रारम्भ किया । अल्प समय में हुई प्रगति से गुरुजी आप पर बड़े प्रसन्न रहने लगे। उस समय श्रीपूज्याचार्य श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी बड़े प्रभावशाली थे और उन्हीं के आज्ञानुवर्त्ती यति श्ररूपचन्द्रजी थे । दीक्षानंदी सूची के अनुसार आप की दीक्षा सं० १६०० में नागोर में होना सम्भव है । मोहन का नाम मानोदय और लक्ष्मीमेरु मुनि के पौत्रशिष्य लिखा है। जोवनचरित के अनुसार आपकी दीक्षा मालव देश के मकसीजी तोर्थ में श्री जिन महेन्द्रसूरिजी के कर कमलों से हुई थी । इन्हीं जिन महेन्द्रसूरि जो महाराज ने तीर्थाधिराज शत्रुञ्जय पर बम्बई के नगरसेठ नाहटा गोत्रीय श्री मोतीशाह की ट्रॅक में मूलनायकादि अनेकों जिन प्रतिमाओं को अंजनशलाका प्रतिष्ठा बड़े भारी ठाठ से कराई थी ।
श्रीमोहनलालजी महाराज ने ३० वर्ष तक यतिपर्याय में रहकर सं० १९३० में कलकत्ता से अजमेर पधारकर क्रियोद्धार करके संवेगपक्ष धारण किया। आपका साध्वाचार बड़ा कठिन और ध्यान योग में रत रहते थे एकवार अकेले विचरते हुए चल रहे थे नगर में न पहुंच सके तो वृक्ष के नोचे ही कायोत्सर्ग में स्थित रहे, आपके ध्यान प्रभाव से निकट आया हुआ सिंह भी शान्त हो गया ।
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