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कई ग्रन्थों की प्रेसकापियाँ करवा लाये । सं० १९८४ का का अवसर मिला। जो गुण उनमें देखे गये अद्यतन कालीन चौमासा फलौदी करके मा० सु० ५ को बीकानेर पधारे। साधुओं में दुर्लभ हैं। उनमें समय की पाबन्दी बड़ी बीकानेर में आपने तीन चातुर्मास किये जिसमें उपधान, दीक्षा ज़बर्दस्त थी। विहार, प्रतिक्रमणादि किसी भी क्रिया में उद्यापनादि हुए। श्री प्रेमचन्दजी खचानची ने उपधान कोई आवे या न आवे, एक मिनिट भी विलम्ब नहीं करते। करवाया। उस समय रुग्णावस्था में भी उन्होंने शिष्यों को शास्त्रों का अध्ययन-अभ्यास एवं स्मरणशक्ति भी बहुत समस्त आगमों की वाचना दी थी। हमारी कोटड़ी में गजब की थी। भगवती सूत्र जैसे अर्थ गंभीर आगम को चातुर्मास होने से हमें धार्मिक अभ्यास, धर्मचर्चा, बिना मूल पढ़े सीधा अर्थ करते जाते थे। यह उनके गहरे व्याख्यान-श्रवण, प्रतिक्रमणादि का अच्छा लाभ मिला। आगम ज्ञान का परिचायक था। ___ सं० १९८७ के चातुर्मास के अनन्तर आप सूरतवाले आप एक आसन पर बैठे हुए घण्टों जाप करते, व्याख्यान श्री फतचन्द प्रेमचन्द भाई की वीनति से पालीताना पधार देते । आपके पास गुरु-परम्परागत आम्नाय और गच्छमर्यादा कर सं० १६६४ मिती माघ सुदि ११ के दिन स्वर्गवासी आदि का पूर्ण अनुभव था। आपने अपने जीवन में जैन
संघ का जो उपकार किया, वर्णनातीत है। आप प्रतिदिन आपकी प्रतिमाएं शत्रुजय तलहटी मंदिर-धनावसही एकाशना व तिथियों के दिन प्रायः उपवास किया करते दादावाड़ी में, जैन भवन में, और बीकानेर श्रोजिन- थे। आप अप्रमत्त संयम पालन में प्रयत्नशील रहते थे। कृपाचन्द्रसूरि उपाश्रय में है रायपुर के मंदिर में भी आपकी आचार्य श्रीजयसागरसूरिजी प्रतिमा पूज्यमान है।
श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी का शिष्य-समुदाय बड़ा ___ आपके उपदेश से इन्दौर, सूरत, बीकानेर आदि ज्ञान- विशाल था। आपके विद्वान शिष्य आणंदमुनिजी का स्वर्गभंडार, पाठशालाएँ, कन्याशालाए, खुली। कल्याणभवन, वास आपके समक्ष ही बहुत पहले हो गया था। द्वितीय चांदभवन आदि धर्मशालाएं तथा जिनदत्तसरि ब्रह्मचर्याश्रम शिष्य उपाध्याय जयसागरजी थे जिन्हें आचार्य पद देकर संस्थाओं के स्थापन में आपका उपदेश मुख्य था। आपने आपने जयसागरसूरिजी बनाया, बड़े विद्वान और कियापात्र बहुत से स्तवन, सज्झाय, गिरनार पूजा आदि कृतियों को थे। श्रीजयसागरसूरिजी के छोटे भाई राजसागरजी ने भी रचना की जो कृपाविनोद में प्रकाशित हैं। कल्पसूत्र टीका सूरिजी के पास दीक्षा ली थी उन्होंने सूरिजी की बहुत सेवा द्वादश पर्वव्याख्यान व श्रीपाल चरित्र के हिन्दी अनुवाद की और छोटी बहिन ने भी दीक्षा ली थी जिनका नाम करके आपने हिन्दी भाषा की बड़ी सेवा की। हेतश्रीजी था, जिनकी शिष्याए' कीत्तिश्रीजी, महेन्द्रश्रीजी __सूरत से श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोंडार फण्ड आदि हैं, कीतिश्रीजी अभी मन्दसौर में विराजमान हैं। ग्रन्थमाला चालू कर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन श्रीजयसागरसूरिजी महाराज प्रकाण्ड विद्वान थे । बिना करवाया। स्वर्गवास के समय आपकी साधु साध्वी समुदाय शास्त्र हाथ में लिए भी शृंखलाबद्ध व्याख्यान देने का लगभग ७० के आस पास था। तदनन्तर नए साधु दीक्षित अच्छा अभ्यास था। आपने श्रीजिनदत्तसूरि चरित्र दो न होने से घटते २ अभी साधुओं में केवल वयोवृद्ध मुनि भागों में तथा गणधर-सार्धशतक भाषान्तर आदि कई मंगलसागर जी और २०-२२ साध्वियाँ ही रहे हैं। पुस्तकें लिखी थीं। पाप ठाम चौविहार करते थे, अपने
सूरिजी के तीन चौमासा में हमें उन्हें निकट से देखने व्रत-नियमों में बड़े दृढ़ थे। बीकानेर की भयंकर गर्मी में
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