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प्रभावक प्राचार्यदेव श्री जिनहरिसागरसूरीश्वर
[ले० मुनिश्री कान्तिसागरजी] आचार्य पद की महत्ता आबाल-ब्रह्मचारी प्रवचन-प्रभावक पूज्य श्री जिनहरिसागर जैन शासन में आचार्यों का स्थान ी तीर्थकर भगवान् सूरीश्वरजी महाराज थे। आपका ही पुनीत चरित्र से दूसरे नम्बर पर ही आता है क्योंकि जिस समय भव्या- प्रस्तुत लेख में प्रकाशित किया जाता है। स्माओं को मोक्ष-मार्ग दिखा कर श्रीतीर्थकर भगवान् अज
कुमार हरिसिंह रामर पद को प्राप्त हो जाते हैं, उस समय उनके विरहकाल जोधपुर राज्य के नागोर परगने में प्राकृतिक सौन्दर्य से में द्वादशाङ्गी रूप सम्पूर्ण प्रवचन को और जैन-संघ के हराभरा 'रोहिणा' नाम का एक छोटा सा गांव है। वहां विशिष्ट उत्तरदायित्व को आचार्य देव ही धारण करते हैं। खेती-पशुपालन आदि स्वावलम्बो कर्म वाले और युद्धभूमि अतएव प्रवचन-प्रभावक प्रात:स्मरणीय आचार्य-देवों के में दुश्मनों से लोहा लेनेवाले, क्षत्रियोचित गुणों से स्वतन्त्र पुनीत चरित्रों को जानना प्रत्येक आत्महितैषी का कर्तव्य जीवन वाले, जाट वंशीय झुरिया खानदान के हो जाता है। अत: एक ऐसे ही आचार्यदेव के दिव्य लोगों की जमींदारी है। जमींदारों के प्रधान पुरुषजीवन से परिचय कराया जाता है। जिसकी अतुल-कीति- श्रीहनुमन्तसिंहजी की धर्मपत्नी श्रीमती केसरदेवी किरणों से मारवाड का प्रत्येक प्रदेश आज प्रकाश- की पवित्र कँख से वि० सं० १६४६ के मार्गशीर्ष शुक्ला ७ मान है।
के दिन दिव्य मुहूर्त में हमारे चरित-नायक का जन्म हुआ _ पूर्व सम्बन्ध
था। हरि-सूर्य और सिंह के समान तेजोमय भव्य आकृति श्रीमन्महावीर भगवान के ६७वे पट्टधर श्रीजिनभक्ति और महापुरुषों के प्रधान लक्षणों से युक्त अपने सुकुमार को सूरिजी म० के पट्टशिष्य श्रोप्रीतिसागरजी महाराजने वि० देखकर माता पिता ने आपका गुणानुरूप नाम 'श्रीहरिपिह' की १६वीं-शताब्दी में यति समुदाय में बढ़ते हुए शिथिला- रखा था। चार को और प्रभुपूजा विरोधी ढुंढक मत के प्रचार को
सफल संयोग देखकर वाचनाचार्य श्री अमृतधर्मजी म० और महोपाध्याय अपनी अलौकिक लीलाओं से माता-पितादि परिजनों श्रीक्षमाकल्याण जी महाराज-जो कि आपके शिष्य-पशिष्य को आनन्दित करते हुए कुमार हरिसिंह जब करीब ६-७ थे- के साथ श्री सिद्धाचल तीर्थाधिराज पर क्रियोद्धार किया वर्ष के हुए तब अपने पिता के साथ पूज्य गणाधीश्वर श्री था। महोपाध्याय श्रीक्षमाकल्याणजो म० की शिष्य परम्परा भगवान्सागरजी महाराज-जो कि गृहस्थावस्था में आपके में परमोपकारी सिद्धान्तदधि गणाधीश्वर श्रीसुखसागरजी चाचा लगते थे - के दर्शन के लिये फलोदी (मारवाड़) महाराज हुए। आपका समुदाय खरतर गच्छीय साधुओं में गये। बाल लीला के साथ आपने वंदन करके श्रीगुरुमहाअधिक प्राचीन एवं सुविस्तृत रूपसे वर्तमान है। राज की पापहारिणो चरणधूलि को अपने मस्तक में श्रीसुखसागरजी महाराज की समुदाय के अधिनायक लगाई। श्रीगुरुदेव ने दिव्य-दृष्टि से आप में भावी प्रभाव.
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