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जिनहर्ष ने अपनी उपासना के पुष्प अर्हन्त के चरणों में अर्पित किये हैं । अर्हन्त वे हैं जिन्होंने पहले तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया हो, किन्तु फिर भी उनको अवतार नहीं कहा जा सकता। वे तब और ध्यान के द्वारा भयंकर परीषहों को सहते हुए चार घातिया कर्मों को जलाते हैं । और तब अर्हन्त कहलाने के अधिकारी बनते हैं । अर्थात् गुण अवतारी पहले से ही प्रभुका विशिष्ट रूप होता है किन्तु अर्हन्त स्व पौरुष से भगवान बनते हैं । साकारता, व्यक्तता और स्पष्टता की दृष्टि से दोनों में कोई अन्तर नहीं है, अतः जैन भक्ति क्षेत्र में अर्हन्त सगुण ब्रह्म के रूप में पूजे जाते हैं ।
वैष्णव भक्तों के और जिनहर्ष के भक्तिपदों में पर्याप्त भावात्मक साम्य पाया जाता है। दोनों ने ही आराध्य को इतर से देवों महत्तम समझा है। सूरदास अन्य देवों से भिक्षा मांगने को रसना का व्यर्थ प्रयास कहते हैं ( सूरसागर प्र० पृ० १२) । तुलसीदास लिखते हैं कि अन्यदेव माया से विवश हैं, उनकी शरण में जाना व्यर्थ है । ( तुलसीदास - विनय पत्रिका पृ० १६२ ) । जिनहर्ष भी यही कहते हैं कि इतर समस्त देवता नट ओर विट के समान हैं ( ग्रन्थावली पृ० २२ ) । उन्हें देखने से मन खिन्न होता है । आराध्य की महत्ता के साथ-साथ भक्त अपनी होनता का अनुभव भी करता है । तुलसी ने "तुम सम दीन बन्धु न कोउ
सम, सुनहु नृपति रघुराई" (विनय पत्रिका पदसंस्था २४२) और सूरदास ने अवध कहो कौन दर जाई में यही भावना व्यक्त की है । ( सूरसागर ) भक्त जिनर्ष का दीनभाव भी द्रष्टव्य है । कवि सांसारिक कष्ट परम्पराओं से संतप्त होकर प्रभु शरण में पहुँचता है । वह दया की भिक्षा मांगता है । उसे स्वाचरित कुकर्मों से ग्लानि का अनुभव होता है और अपने उद्धार की प्रार्थना करता है । दीनता के साथ ही भक्त अपने दोषों का उल्लेख भी किया करते हैं । उन्हें प्रभु की करुणा का अवलम्बन रहता है, इसलिये वे करुणासागर से कुछ भी प्रच्छन्न रखना नहीं चाहते । तुलसो
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'विनय पत्रिका' में अपने को 'सब विधि होन, मलीन और विषयलीन' कहते हैं । (१ तुलसी- विनयपत्रिका पद संख्या १४४) सूरदास ने 'मोसम कौन कुटिल खल कामी' ( सूरसागर ) में अपने दोषों को ही गिनाया है । जिनहर्ष भी कहते हैं कि मैं मोहमाया में मग्न हो गया हूँ और उससे ठा भी गया हूँ | मैंने कुकर्मों के कारण अपने दोनों ही भव नष्ट कर दिये हैं । ( मोह मगन माया मैं धूत उ निज भव हारे दो ग्रन्थावली पृ० ३२)
कवि के कोमल चित्र को सर्वाधिक प्रभावित करनेवाली मरुमन्दाकिनी मीराबाई हैं । जो अनन्यता, विरह तीव्रता और विग्रह सौन्दर्य दर्शन को ललाक हम मीरा में पाते हैं, वही जिनहर्ष में | मोरा ने जबसे नन्द नन्दन गिरिधर गोपाल को देखा है, उसके नेत्र वहीं अटक गये हैं " जबसे मोहि नन्दनन्दन दृष्टि पडयो - नैना लोभी रे बहुरि सके नहि आय... मोरापदावली पृ० १६७) | भक्त जिनहर्ष की स्थिति भी यही है । जबसे श्री शीतलजिन को मूर्ति उन्हें दृष्टिगोचर हुई है, उनके नेत्र वही ठिठक गये हैं । वापिस लोटने का नाम तक नहीं लेते । ( 'जबसे मूरति दृष्टि परीरी - नयनन अटके रसिक सनेही, हटके न रहे एक घर रो - जिनहर्ष ग्रन्थावली पृ० ७)
मीरा गिरधर गोपाल की जन्म-जन्मान्तर को दासी है, उसका प्रेम एक जन्म का नहीं, अपितु अनेक जन्मों में उपचित राशि हो चुका है । ( में दासी थांरी जनम जनम को, थे साहिब सुगा' मीरा पदावली पृ० १७६ ) जिनहर्ष भी अपने को भव भवान्तर का प्रभु प्रेमी मानते हैं । प्रभुसे लगी उनकी लगन अनेक जन्मों की है । ( 'भव-भव तुझसूं प्रीतड़ी रे.. जिनहर्ष ग्रन्थावली पृ० १६४ ) | मांग को स्वप्न में प्रभु ने अपना लिया है । गिरिधर के साथ उस विवाह भी स्वप्न में ही हुआ है । ( 'भाई म्हारो सुपणां माँ परण्यो दीनानाथ' मीरा पदावली पृ० २१६) । जिनहर्ष के आराध्य भी उससे स्वप्न में मिलते हैं और सुख उमंग का
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