________________
[ ११५ १ जीव की अजर, अमर, अविनाशी, सच्चिदानन्द स्वरूप की मान्यतावाले दर्शन ही जीव को मुक्तिधाम पर पहुँचाने पर पहुँचाने में सफल नहीं बन सकते। साथ में अजीव तत्व जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुदगल हैं, उनके पूर्ण स्वरूप को समझे बिना छुटकारा नहीं है। यद्यपि दूसरे द्रव्य अपनी गति, स्थिति, अवकाश, प्रवर्त्तना और परिणाम क्रिया में जीव के साथ सम्बन्धित है तथापि इनपर विशेष मंथन, परिशीलन न भी होवे परन्तु पुद्गल का स्वरूप समझना परम आवश्यक है क्योंकि पुद्गल और जीव परस्पर परिणामी द्रव्य हैं। एक दूसरे का परस्पर सम्बन्ध अलिप्त होने पर भी वे अपना प्रभाव परस्पर डाले बिना रहते नहीं ।
एक दर्पण के सामने काला पर्दा रख दिया जाय तो यद्यपि पर्दा और दर्पण पृथक है, फिर भी पर्दे की परछाया दर्पण की निर्मलता को आवरित किये बिना रहती नहीं। इसी तरह आत्मा के ऊपर पुद्गल का आवरण क्या है, कैसे होता है, कैसे टिकता है ओर कैसे मिटता है, यह सब समझता ही पड़ेगा क्योंकि पुद्गल की भी कई वर्गणायें हैं। खासकर औदारिक आदि आठ वर्गणाएँ जीव से बहुत सम्बन्धित हैं और इनमें भी कार्मण वर्गणा, जो अति सूक्ष्म मानी जाती है अपने परिणाम के असर द्वारा आत्मा को स्व-पर का भान तक भूला देती है और यह जीव पर-परिणामी बन जाता है। संज्ञा काय विषय-वासना, आशा, तृष्णा ये सब पुद्गल परिणामी होने पर भी जीव अपनी अज्ञान दशा में इनको आत्मपरिणामी समझकर उनमें परिणमन करता है और पुद्गल परिणामी बनकर चारों गतियों में परिभ्रमण करता है । अपने अनन्त प्राणों के संयोग-वियोग के चक्कर में अरपट पटि न्यायेन" अनादिकाल से संसार समुद्र के जन्म मरण की तरंगों में गोते खाता रहता है ।
बार्ह दर्शन को परिभाषा में ब्रव्य-गुण-पर्याय की घटना में ही सारे संसार का चक्र चलता है । इसलिये
Jain Education International
द्रव्य-गुण पर्याय का जितना भी सूक्ष्म अध्ययन, अवलोकन, चिंतन, मंथन और परिशीलन होगा, उतना ही सत्य का साक्षात्कार एवं वस्तुस्थिति का भान होता जायगा ।
ग्रीष्म ऋतु की ताप से पीड़ित हाथी सरोवर के पंक (कीचड़ ) की शीतलता को देखकर उसमें सुख की भ्रांति में विश्रांति लेने गया । उसे शीतलता का सुख अनुभव जरूर हुआ परन्तु उस कादव में ऐसा फँस गया कि वह फिर बाहर नहीं आ सका । ग्रीष्म ऋतु के प्रचंड ताप से कीचड़ सूखता गया और हाथी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। इस तरह इस संसार का हाल है । इसलिये वैभाविक संबंध विकास मार्ग में कहाँ तक उपयोगी है और कहाँ तक निरुपयोगी है, इसका सम्यग् बोध प्राप्त न हो तो वही विकास विकार रूप बनकर विनाश की तरफ ले जाता है। विश्वतंत्र के प्राणियों के लिए जीवन विकाश की प्रक्रिया को जीव अपनी अज्ञान दशा में निरर्थक बना देता है । विश्वतंत्र में कहो या आर्हत्-दर्शन की परिभाषा में लोकस्थिति कहो या विज्ञान की भाषा में COSMIC ORDER कहो, प्रत्येक पदार्थ अपने स्वाभाविक स्वरूप में अवस्थित रहने के लिये सदा प्रवृत्तिशील है। अतः आत्-दर्शन में सव बड़े तत्वों का परम तत्व (Fulorum of the whole Universe) "उवन्नेइ बा, विगमेइ वा धुवे वा" माना है। अर्हन्त भगवंत धर्म वीर्थ स्थापित करने के लिए अपनी अमृत देशना का मंगलाचरण करते हैं तब ऐसा ही वर्णन है कि गणधर प्रश्न करते हैं कि "भंते । किं वत्तं ? किं तत्त ? उसके प्रत्युत्तर में भगवन्त " उवन्ने वा विगमेइ वा धुवेइ वा" फरमाते हैं । यही द्रव्य-गुण- पर्याय की घटमाल को समझने का परमोस्कृष्ट साधन है और नैसर्गिक नियंत्रण का सारा विश्व विधान इसी विज्ञान को प्रकाश में लाने के लिये नियोजित है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org