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तथा जन्म मरण को भयानक भवाटवी में भटकता है, क्योकि इसकी आत्मप्रदेश रूप ज्ञान चेतना की विशेषता फिरता है।
मस्तिष्क भाग में केंद्रित है। इसलिये यह सत्यानुसन्धान ___ विश्व यन्त्र का पदार्थ विज्ञान कितना ही परोपकार- करके अपने साध्य-सहजानन्द, सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त पूर्ण होने पर भी उसके गर्भ में रहे हुए परमानन्दकारी कर सकता है। तिर्यचों में तो, तिरछे स्वभाव के होने के परमार्थ को हरएक प्राप्त नहीं कर सकता और इसके कई कारण, ज्ञान का बहुत साधारण स्थिति में विकास होता है कारणों पर आर्हत् दर्शन में अनेक प्रकार से प्रकाश डाला क्योकि उनका मस्तिष्क तिरछा है । यह प्रत्यक्ष देखा जाता गया है। उसमें एक कारण यह भी बताया गया है कि यह है कि हाथी, घोड़े आदि का मस्तिष्क कितना ही बड़ा होने आत्मा उर्ध्वगमन स्वभाववाला है। जिस तरह अग्नि का पर भी, उनकी ज्ञान-चेतना बहुत सीमित है, इसलिये धुआँ उर्ध्वगामी होने से उसका उर्ध्वगमन कराने में कोई सत्य को साक्षात्कार करने के वे पात्र ही नहीं हैं। देव प्रयत्न की ज़रूरत नहीं है लेकिन इतर दिशाओं में गमन और नरक के जीव उर्ध्वगामी जरूर हैं परन्तु जन्मान्तरों के कराने में बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है क्योंकि वह धुएं का विभाव धर्म में चाहे शुभ या अशुभ न्यूनाधिक मात्रा में विभाव है, स्वभाव नहीं है। इसी तरह आत्मा अपने प्रवृत्ति हुई है जिससे उनके सुख-दुःख की स्थिति उनके उर्ध्वगमन स्वभाव में सहज ही विकास साध सकता है जब
हा विकास साध सकता है जब स्वाधीन नहीं है। अत: वे भी सत्य साधना को चरितार्थ कि अधोगमन एवं तिरछागमन में चेतन शक्ति का विकास करने में समर्थ नहीं हैं। केवल मानव जन्म में ही वैभाविक दुःसाध्य हो जाता है । आत्मा वनस्पतिकाय आदि स्थावर शक्ति समतुल मात्रा में विकसित न होने से इसको स्वाभामें अधोगामी [ Topsy Torby ] स्थिति में है, विक शक्ति साधने का सुन्दर प्रसंग है। इसीलिये मानव तियंच आदि त्रस में तिरछागामी (Oblique) स्थिति जन्म को अति दुर्लभ माना गया है और उसकी दुर्लभता के में है और नरक, देव और मनुष्य गति में उर्ध्वगमन (Per. दस सुन्दर दृष्टांत उत्तराध्ययन सूत्र में बड़े ढंग से दर्शाये pendicular) स्थिति में है। शास्त्रकार महर्षियों ने गये हैं। ऐसा सुन्दर वर्णन और कहीं नहीं मिलता। तीन चेतनाओं का वर्णन करके पहले ही खुलासा कर अब बात यह है कि हमें अपनी स्वाभाविक सच्चिदान द दिया है कि तिथंच गति, चाहे स्थावर में हो चाहे स्थिति को प्राप्त करने के लिये स्वभाव एवं विभाव के कार्य त्रस में हो, कर्म चेतना के वश है; नरक और देव कर्मफल कारण भावों पर खूब विश्लेषण करना नितान्त आवश्यक चेतना के वश है और मानव एक ही ऐसी गति है जिसमें है। आहत-दर्शन में उस विश्लेषण विश्व-विद्या का नाम ज्ञान चेतना-प्रधान है । वनस्पति आदि में उसकी अधोगमन द्रव्य गण-पर्याय का चिंतन है और यही आर्हत्-दर्शन का स्थिति होने से चेतना का बिल्कुल अल्प विकास नजर आता आदर्श ध्यान है, क्योंकि यह विश्वतंत्र इतना विचित्र एवं है क्योंकि उनकी जड़ और धड़ सब उल्टे हैं। यही कारण विज्ञानपूर्ण है कि इसमें कितने ही स्थूल-सूक्ष्म कारण हैं, है कि वृक्षों की शाखा-परिशाखाओं आदि ऊपर के भागों कितने ही उपादान-निमित्त कारण हैं और कितने ही मूर्त को काटने पर भी वे जीवन का अस्तित्व बनाये रखते हैं। अमूर्त कारण हैं । इसलिये आर्हत्-दर्शन में सर्वज्ञ बने बिना मानव के उर्ध्वगमन स्वभाव में विकसित होने से मस्तक के एवं केवलज्ञान प्राप्ति किये बिना कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर नाचे रहे हुए अधोभाग के अंगपात्रों को काटने पर भी वह सकता। इस विश्व-तत्र का संचालन जीव, अजीव दोनों जोवित रहता है व अपने जीवन का अस्तित्व टिका सकता पदार्थों के परस्पर संबंध से चलता है। इसलिये केवल
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