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[ ११० संचार करते हैं । ( 'सूतां हो प्रभु सुतां हो, सुपनां मां मिलइ जी' जिनहर्ष प्रत्यावली पृ० १७० ) । मीरा का साध्य प्रभु चरण-वन्दन है | इसो हेतु वह गिरधर गोपाल की चाकरी करने को समुत्सुक है उसमें बसे प्रभुदर्शन, स्मरण और भावभक्ति का विगुणित लाभ प्राप्त होगा । ('चाकरी में दरसण पाऊं-सुमिरण पाऊँ बरची' मीरापदावली पृ० २७) जिन हर्ष भी केवल आराध्य सेवा की कामना रखते हैं। उसके अतिरिक्त उन्हें और कुछ नहीं चाहिये । ( चरण कमलनी चाऊँ चाकरी, हो राज अवर न पाऊँ बीजी बात' - जिन ग्रन्थावली पृ० १८२) ।
महाकवि हर्ष बहुपठित और बहुश्रुत थे । उन्होंने अनेक भाषाओं के ग्रन्थ रनों का अध्ययन, मनन किया था। वे सत्संग प्रसंग में विद्वज्जनों, पट्टधरों और मुनियों के प्रवचन श्रवण से लाभान्वित भी थे । उक्त व्यापक अध्ययन, हुए मनन और श्रवण का प्रभाव उनके काव्यों पर भी पड़ा है । यह मुख्यतः दो रूपों में उपलक्षित होता है।
१ विचार और भाव -साम्य के रूप में ।
२ प्रचलित पद पंक्तियों, सूक्तियों को अविकल स्वीकारने के रूप में ।
महाकवि के महान् काव्यों में ऐसे अनेक भाव और विचार मिलते हैं जिनका वर्णन पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं में उपलब्ध होता है । कतिपय उदाहरण पठितव्य हैं :
'दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्प किमो न भयंकरः ॥ ... 'जिन का छायानुवाद भी द्रष्टव्य है खल संगत तजिये जसा विधा सोभत तोय | पन्नगमणि संयुक्त लें, क्यूं न भाकर होय ॥ इसी प्रसंग में सोमप्रभाचार्य कृत संस्कृत श्लोकों ओर जिनहर्ष द्वारा विहित उनके भावानुवाद का उदाहरण भी पठितव्य है
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'स्वर्णस्थाले क्षिपति सरजः पादशौचं विधत्ते पीयूषेण प्रवरकरिणं वात्येषभारम् । विस्तारत्नं विकिरति कराद वायसोडावनार्थम् । यो दुष्प्रापं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः ॥ इंधन चंदन काठ करे सुरवृन उपारि धतुरन बोवे।
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सोवन बाल भरे रजते सुधारस कर पावहिं धोवे। हस्ती महामद मस्त मनोहर, भारबहार के ताड़ विगोवे । मूढ प्रमाद गयो जसराज न धर्म करे नर सोभत षोवे ॥
कहने की आवश्यकता नहीं कि भावानुवाद में कवि बंधकर नहीं चला है । उसने 'इंधन चंदन काठ करें का भाव अपनी ओर से जोड़कर मूल श्लोक के भाव को और भी प्रभावक बना दिया है ।
निम्नांकित उद्धरणों में भी भावसाम्य दृष्टिगोचर होता है।
' षष्ठांशवृत्तेरपि धर्म एष:' कालिदास शाकुन्तलम् - 'लोक दीई धनधान तो रे, रायभणो जिम लाग । तिम मुनिवर पण धम्मं नो रे, छठों भाग सुं राग ॥ जिन हर्ष - हरिबलमा रास पृ० ३८० 'सुभाषित रत्न भाण्डागार' के सुभाषित मूर्ख हि दुखानुभूय शोभते' को जिनहर्ष 'दुखविण सुख किम पाय' से अभिव्यंजित करते हैं।
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महाकवि जिनहर्ष के काव्य में पूर्ववर्ती कवियों की पद पंक्तियाँ भी मिलती हैं। कतिपय उदाहरण दिये जा रहे हैं । कबीर - नौ द्वारे का पींजरा, तामे पंछी पौन । रहने को आचरज है, गए अचम्भो कौन || जिनहर्ष - दस दुबार
दस दुवार को पींजरों, तामे पंछी पोन ।
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रहण अबू भो है जसा जान अर्थ'बो कोण ॥ मीरा - जो मैं ऐसो जांणती, नगर ढंडोरो फेरती जिनहर्ष-जो हम ऐसे जानते, सही ढंढोरे फेरते,
प्रीत कियां दुख होय । प्रीत न करियो कोय | प्रीति बीच दुख होय । प्रीति करो मत कोइ ॥
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