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है, यह भी स्पष्ट करते हैं। तर्कभाषाकार और प्रकाशि- चर्चा होनी चाहिए परन्तु प्रमाण-विचार जितनी चर्चा इन काकार ने शब्द के अनित्यत्व की चर्चा यद्यपि नहीं को है प्रमेयों को नहीं की गई है । इस विषय में तर्कभाषाकार से किन्तु इसका महत्त्व समझते हुए गुणरत्ल इस चर्चा को लेकर तरङ्गिणोकार तक सब समान हैं । शरीर की चर्चा छेड़ते हैं, और शब्द-नित्यत्व आदि मोमांसक के मत का में गुणरत्त ने शरीरत्व जाति है या नहीं इसकी चर्चा छेड़ी खण्डन भी करते हैं। इस चर्चा में शब्द की शक्तियाँ, है (पृ० ४३८-३६) ओर साङ्कर्य दोष होते हुए मी शरीरत्व अभिवा, लक्षणा और व्यञ्जना को चर्चा भो समाविष्ट हो जाति है ऐसा स्वीकार किया है। जाती है (पृ. ३ ५)।
चतुर्थ प्रमेय अर्थ को चर्चा में वैशेषिक मत के सातों ___ चारों प्रमाणों को स्थापना के अनन्तर अर्थापत्ति, पदार्थों का निरूपग तर्कभाषाकार ने किया है। इससे अनुपलब्धि, किंवा अभाव ये दो प्रमाणों का अन्तर्भाव कुछ पदार्थों को चर्चा की पुनरुक्ति होती है। गुणरत्न अनुमान में न्याय और वैशेषिक परम्परा करती है । तर- इस वास्ते इस विषय को कोई विस्तृत चर्चा नहीं करते हैं । डिगीकार भी उनका अनुसरण करते ३ए इन प्रमाणों का यहां 'एवम' पद का विचार श्रीगणरत्न विस्तार से करते हैं अमुमान में अन्तभाव करते हैं। प्रमाण के अन्तर्भाव की इस (पृ० ४४८ )। चर्चा का समापन करते हए ‘एव' पद का चर्चा में विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध से अभाव का अर्थ अन्योन्याभाव हो सकता है ऐसे लीलावतीकार के मत प्रत्यक्षज्ञान कैसे होता है यह भी विशदता से तरंगिणी में को वे समर्थित करते हैं । समझाया गया है (पृ. ३३५-३५७) ।
अर्थ में से द्रव्य पदार्थ के निरूपण में पृथ्वी का निरूपण प्रमाणों को चर्चा में तर्कभाषाकार ने प्रामाण्यवाद आता है। इसमें विशेष चर्चा पाकज प्रक्रिया की को गई की चर्चा भी की है। इस विषय में तर्कभाषाकार पूर्व है। यह चर्चा यहां संक्षेप में ही की जाती है, क्योंकि इस पक्ष में भट्टमत के सिद्धान्त को रखते हैं। प्रकाशिका का चर्चा का उचित स्थान गुणों की चर्चा में है । द्रव्यों की स्वतः प्रामाण्यवादो मीमांसक के तीनों मतों को लेकर चर्चा में तेजस द्रव्य सूवर्ण की चर्चा भी स्वभावत: की उनका खण्डन करते हैं । गुणरत्न मोमांस और नेयायिक जाती है। इस विषय में तरंगिणीकार सूचन करते हैं कि दोनों के मतों को समझाकर प्रथम ज्ञानप्रामाण्य क्या है, यद्यपि सुवर्ण में तेजस रूप तथा स्पर्श उत्पन्न होता है किन्तु यह विस्तार से समझाते हैं और मीमांसक के प्रत्येक मत वे पृथ्वी के परमाणु को अधिकता होने से पार्थिवरूप और को विशदता से और विस्तार से चर्चा करते हैं (पृ. ३६१- पार्थिव स्वर्श से अभिभूत हो जाते हैं (पृ. ४५२-५४) । ६२)। यद्यपि इस विषय में जैन सिद्धान्त न्याय वैशेषिक पृथ्वी, जल, तेज और वायु के निरूपण के अनन्तर के सिद्धान्त से पृथक है। फिर भी गुणरत इसे प्रामाणिकता चारों द्रव्यों के परमाणुओं की चर्चा में परमाणुवाद की से न्याय वैशेषिक के परतः प्रामाण्यवाद का स्थापन चर्चा की जाती हैजैनदर्शन के पुद्गल ओर न्याय
और मण्डा करते हैं। करीब आधा ग्रन्थ तरंगिगीकार ने वैशेषिक के परमाणु भिन्न होने पर भी श्री गुणरत्न यहां प्रमाण की चर्चा में उपयुक्त किया है।
केवल परमाणुवाद की चर्चा करते हैं। परमाणुओं से सृष्टिप्रमाण को चर्चा के अनन्तर न्याय दर्शन के बारह संहार की प्रक्रिया कैसे होती है, यह वैशेषिक मत के अनुप्रयों की चर्चा शुरू होतो है। इन बारह प्रमेयों में भी सार समझाया गया है। यहां पर प्रलय के समय सारे आध्यात्मिक दृष्टि से मुख्य आत्मा, शरीर, और इन्द्रिय की परमाणुओं का विभाजन कैसे होता है इसे विस्तार से तर्क
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