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तरङ्गिगोमें श्रीगुणचन्द्र समझाते हैं (पृ० ४५५-५६) । यहां सति एतेवृत्तिमात्रवृत्तिगुणेचसाक्षाद्व्याप्यजातिकत्वं परिमाणपर प्राचीन और नवीन नैयायिकों के मतभेदमें गुणरत्न प्राचीन त्वम्' (पृ० ५०४ ) स्पष्ट लक्षण देते हैं । 'पृथक्त्व' गुण नैयायिकों के मत को समर्थित करते हुए समवायि कारण को समझाते हुए वे अन्योन्याभाव से पृथक्त्व किस तरह के नाश से कार्य का नाश होता है, इस सिद्धान्त को भिन्न है इसका स्पष्टोकरण विशदतासे करते हैं। स्वीकार करते हैं। द्रव्य की चर्चा में गणरत्न आत्मा की तदनन्तर वे संयोग को समझाते हुए इसका भी समुचर्चा प्रमेय में हो जाने के कारण पुनरुक्ति दोष के वारण के चित लक्षण “विभागप्रतियोगिकान्योन्याभावत्वे सति एकलिये नहीं करते हैं।
वृत्तिमात्रवृत्तिगुणत्वसाक्षाद्व्याप्य जातिकत्वं सयोगत्वम्" देते द्रव्य के अनन्तर गण निरूपण में तर्कभाषाकार गुण हैं। इस लक्षण को पदकृत्य शैली से समझा कर संयोग का लक्षण "सामान्यवानसमाधिकारणमस्यन्यात्मा गण:" के भेद को भी वे समझाते हैं। इस विषय में नैयायिक ऐसा देते हैं। प्रकाशिकाकार गोवर्धन इस लक्षण में 'कर्म- जो कि संयोग को अव्याप्य वृत्ति कहते हैं उनके साथ द्रव्यभिन्नत्वे सति' ऐसा विशेषण बढ़ाते हैं। गुणरत्न इस अपनी असम्मति प्रकट करते हुए श्रीगुणरत्न संयोग को भी विशेषण वृद्धि को विस्तार से समझाते हैं और रघुनाथ व्याप्य वृत्ति सिद्ध करते हैं। अपने मत के समर्थन में वे शिरोमणि के गुण के लक्षण को भी उद्धत करते हैं । गुण की लीलावती को उद्धृत करते हैं (पृ० ५१३-१६) । संयोग चर्चा में रूप को चर्चा भी की जाती है। गणरत्न प्राचोन के अनंतर स्वाभाविक क्रम से विभाग का निरूपण आता नेयायिकों के मत को पुष्ट करते हुए चित्ररूप को आवश्य- है। विभाग यह संयोग का अभाव नहीं है. किन्तु स्वतंत्र कता समझाते हैं (पृ. ४८६)। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गण है--यह बात एक अच्छे तार्किक की तरह गणरत्न इन चारों गुणों के लक्षण को पदकृत्य शैली से समझा कर समझाते हैं । पाचन प्रक्रिया की विस्तार से चर्वा करते हैं। यहां पिठर- तदनन्तर परत्न, अपरत्व इत्यादि गगों को संक्षेप में पाकवादी नैयायिक और पीलााकवादीपिक के मतों को समझा कर वे शब्द निरूपण की चर्चा विस्तार से करते हैं । वे विस्तार से और विशदता से निष्पक्ष रूप से स्थापित 'वोचोतरङ्गन्याय' किंवा 'कदम्ब मुकुलन्याय' से नये-नये शब्द करते हैं। इस प्रक्रिया में विभागज विभाग को सहायता से किस तरह उत्पन्न होते हैं और श्रोत्रन्द्रिय में हो उत्पन्न परमाणु में रूपादि का फर्क कैगे होता है यह बात अपने होकर शब्द का किस प्रकार ग्रहण होता है इसे वे विस्तार शिष्य को स्पष्टता के वास्ते वे समझाते हैं (पृ०४६४)। से समझाते हैं । शब्द का अनित्यत्व और केवल तीन क्षण
चार सुणों के निरूपण में संख्या का निरूपण तर्क- तक शब्द केसे रहता है यह समझाते हुए बुद्धि केवल दो क्षण भाषाकार करते हैं । गुणरत्नजी ने यहां पर गोवर्धन के लक्षण तक ही रहती है ऐसा स्पष्ट करते हैं। शब्द के नाश के के साथ असम्मति प्रगट करते हुए कहा है कि "वस्तुतस्तु तदपि विषय में पूर्व पक्ष के मत को तर्कभाषाकार का मत समलक्षणं न संभवति तस्य लक्षणतावच्छेदकत्वात्" । इतना कह
झने में भल गणरलजी ने यहाँ पर की है। यह कुछ केशव
मिश्र की बात को समझने में गलती से हो गया है। कर वे अपनी ओर से “व्यासज्यवृत्तित्वे सति पृथक्त्वात्म
शब्द के अनन्तर बुद्धि, धर्म, अधर्म आदि आत्मा के गणों गुणत्वव्याप्यजातिमत्वम्" (पृ० ४६६) ऐसा यथार्थ लक्षण
का निरूपण करते हुए भ्रम किंवा अन्यथाख्याति का भी देते हैं। यह बात उनको सूक्ष्मेक्षिका की बोधक है। इसी निरूपण वे करते हैं । इस निरूपण में ख्यातवाद और तरह वे परिमाण नामक गण का भी 'कालवत्तिवृत्तित्वे भिन्न-भिन्न ख्यातियों की चर्चा की गई है (पृ. ५३०) ।
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