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महोपाध्याय समयसुन्दरजी के साहित्य में लौकिक-तत्व
[डा0 मनोहोर शर्मा] जैन कवि-कोविदों ने राजस्थान साहित्य को श्रीवृद्धि स्वरों में गाए जानेवालों ज्ञान-तत्व का सहज ही अपनाकर में अपूर्व योगदान किया है। इनमें महोपाध्याय समय- उसको जीवन का अंग बना लेती है। इस मनोवैज्ञानिक सुन्दरजी का ऊंचा स्थान है । आपकी बहुविध रचनाओं से तथ्य को मुनिवरों ने पूर्णतया समझा और इसका अपने राजस्थानी साहित्य गौरवान्वित है । आप एक साथ ही बहुत गीतों में प्रचुरता से प्रयोग किया। इसका मधुर फल यह बड़े विद्वान और और उच्चकोटि के कवि थे । आपने सुदीर्ध हुआ कि उनकी दिव्यवाणी का लोक हृदय में प्रवेश तो काल तक साहित्य-साधना को और जनाधारण में शोल धर्म हुआ ही, साथ ही लोकगीतों का अमूल्य भण्डार भी का प्रचार किया। मध्यकालीन भारतीय संत-साधेको में सुरक्षित हो गया। आज प्राचीन राजस्थानी लोकगीतों के उनका व्यक्तित्व निराला ही है ।
अध्ययन हेतु जैन मुनियों के बनाये हुए गीत ही एक मात्र महोपाध्याय समयसुन्दरजी की साहित्य साधना को साधन स्वरूप उपलब्ध हैं। उन्होंने अपने गीतों की रचना यह एक विशेषता है कि उसमें एक साथ हो शास्त्र और ल
लोक प्रचलित 'देशियों के आधार पर की और साथ ही लोक दोनों का सुन्दर समन्वय हुआ है। जैन मुनि स्वयं उस गीत की प्रथम पंक्ति का प्रारंम्भ में ही संकेत भी कर शीलधर्म का आचरण करके उससे जनसाधारण को भो दिया । 'जैन गुर्जर कवियों' (भाग ३ खण्ड :) में इन लाभान्वित करने की दिशा में सदैव प्रयत्नशील रहे हैं, देशियों की विस्तृत सूची का संकलन देखते ही बनता है। अतः उनके साहित्य में लौकिक तत्त्वों का प्रवेश स्वाभाविक
महाकवि समयसुन्दरजी संगती शास्त्र के प्रेमो एवं है। महाकवि समयसुन्दरजी के साहित्य में तो लोकसाहित्य ज्ञाता थे। आपने अपने गीतों को अनेक राग रागनियों के का रंग भरपूर है। मध्यकालीन राजस्थानी (गुजराती) अतिरिक्त तत्कालीन लोक प्रचलित 'ढालों' (तों) में भी लोकसाहित्य के अध्ययन हेतु उनका साहित्य एक सुन्दर ग्रथित किया है। कहावत प्रसिद्ध है-- 'समयसुन्दर रा एवं उपयोगी साधन है। इस विषय में एक बड़ा ग्रन्थ गीतड़ा नै राणे कुंभैरा भीतड़ा।' समयसुन्दरजी के गीतों लिखा जा सकता है परन्तु यहां विषय को विस्तार न देकर की यह लोकप्रशस्ति कोई साधारण बात नहीं है। परन्तु संक्षिप्त ज्ञातव्य ही प्रस्तुत किया जा रहा है।
ध्यान रखना चाहिये कि इस महिमा का मूल कारण उनके ____ लोकगीतों की महिमा निराली है । इनमें एक साथ द्वारा लोकगीतों की स्वरलहरी को अपना कर उसके आधार ही शब्द और स्वर दोनों का सरल सौन्दर्य समन्वित मिलता पर गीत-रचना करना ही है । इस दिशा में कुछ चुने हुए है। यह रसपूर्ण साधन जनसाधारण में किसी भी तत्व का उदाहरण द्रष्टव्य हैं, जिनमें लोकगीतों का प्रारंभिक अंश प्रचार-प्रसार करने हेतु परमोपयोगी है। जनता अपने हो संकेत हेतु दिया गया है
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