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१ 'जा जा रे बांधव तु बड़उ'
ए गुजराती गीतनी डाल
अथवा 'वीसरी मुन्हें वालहइ' तथा हरियानी
( मीताराम चौपई, खण्ड ४, ढाल २ ) २ एहनी ढाल नायकानी ढाल सरीखी छइ
पण आंकणी लहरकउ छइ ।
(वही, खण्ड ५, ढाल ४)
३ ए गीतनी ढाल राग खंभावतो सोहलानी । वही खण्ड ८, ढाल
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यहां तक महाकवि के गीतों में चर्चा हुई है । आगे उनके गोतों में के उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं, जो एक करते हैं । लोक और शास्त्र का यह समन्वय अन्य राजस्थानी कवियों में भी अनेक देखा जाता है और यह परम्परागत चीज है । नमूने के तौर पर यहां महाकवि समयसुन्दरजी का एक पूरा गीत दिया जाता है -
प्रयुक्त लोक-संगीत पर प्रयुक्त लौकिक दोहों निराली ही छटा प्रकट
श्रोस्थूलिभद्र गीतम् ( राग सारंग )
प्रीतड़िया न कीजइ हो नारि परदेसियां रे, खिण खिण दाझइ देह |
वीछड़िया वाल्हेसर मलवो दोहिलउ रे, सालइ सालइ अधिक सनेह ॥ प्रीत८ ॥ आज नइ तर आव्या काल उठि चालवु रे,
भमर भमंता जोइ ।
साजनिया बोलावि पाछा वलतां थकां रे, धरती भारणि होइ ॥ प्रीत० ॥
राति न त नाव वाल्हा नींदड़ी रे, दिवस न लागइ भूख ।
अन्न नइ पाणी मुझ नइ नवि रुचइ रे, दिन दिन सबलो दुख ॥ प्रीत० ॥
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रे,
मत ना मनोरथ सवि मनमा रह्या कहियइ केहनइ रे साथ | कालिया तो लिखता भीजइ आंसूओं रे, आवइ दोखी हाथि ॥ प्रति० ॥ नदियां तणा व्हाला रेला वालहा रे, ओछा तणां सनेह |
बहता वह वाल उतावला रे, कि दिखावइ छेह ॥ प्रीत० ॥ सारसड़ी चिड़िया मोती चुगइ रे, चुगे तो निगले कांइ ।
साचा सदगुरु जो आवी मिलइ रे, मिले तो बिछुड़ कांइ ॥ प्रीत० ॥
परि स्थूलभद्र कोशा प्रतिबूझवी रे, पाली - पाली पूरब प्रीति सनेह । शील सुरंगी दीधी चुनड़ी रे, समयसुन्दर कहइ एह ॥ प्रीत० ॥
( समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि, पृष्ठ ३११-३१२) उपर्युक्त गीत की प्रायः सभी 'कड़ियों' में लोकप्रचलित दोहों का सरस एवं सुन्दर प्रयोग सहज ही देखा जा सकता है, जिनमें निम्न दोहे तो अति प्रचलित हैं-राति न आवइ नींदड़ी, दिवस न लागइ भूख । अन्न पाणी नवि दिन दिन सबलो दूख ॥ १ ॥ रुचइ, ओछां केरा नेह ।
डूंगर केरा वाहला,
बहता बहर उतावला, झटकी दिखावइ छेह ॥ २ ॥ सारसड़ी मोती चुगे, चुगै तो निगले काय | साचा प्रीतम जो मिले, मिले तो बिछुड़े काय ॥ ३ ॥
लोक साहित्य का दूसरा प्रमुख अंग लोककथा है । लोककथाओं के संरक्षण में जैन विद्वानों का योगदान अत्यन्त सराहनीय है। उन्होंने शीलोपदेश हेतु अनेक लोककथाओं का प्रयोग किया है और साथ ही उन्हें लिखकर भी सुरक्षित कर दिया है। उनकी टीकाओं में भी लोक
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