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महत्त्वपूर्ण खरतरगच्छीय ज्योतिष ग्रंथ
जोइसहीर
[पं0 भगवानदास जैन] इस नाम का ज्योतिष शास्त्र के मुहूर्त विषय का "पण परमिट्ठ णमेयं समरीय सुहगुरुय सरस्सई सहियं । प्राचीन ग्रंथ है । इसका दूसरा नाम ज्योतिषसार भी है। कहियं जोइसहीरं गाथा छंदेण बंधेण ॥१॥" यह दो प्रकार की रचना वाला देखने में आता है । एक तो मंगलाचरण में इष्ट देवों को नमस्कार करके ग्नन्थ का दूहा और चौपाई छंदों में भाषामय है। इसकी प्राचीन नाम 'जोइसहीर' (ज्योतिषहीर ) स्पष्ट किया है । इसके हस्तलिखित दो प्रति साक्षर रत्न श्रीअगरचन्दजी नाहटा बाद प्रथम तरंग में ५६ विषयों के नाम की पांच गाथाएं बीकानेर वाले के शास्त्र संग्रह में मौजूद है । इन दोनों प्रति के हैं। विषय यह हैपीछे का कुछ भाग बिना लिखा रह गया है, जिससे इसको "तिथि १, वार २. नक्षत्र ३, योग ४, होराचक्र ५, रचना समय आदि समझने में कठिनता है, परन्तु इसकी राशि ६, दिनशुद्धि ७, पुरुष नव वाहन ८, स्वरनाडी , रचना करने वाला खरतरच्छीय पं० हीरकलश मुनि ही है, वत्सचक्र १०, शिवचक्र ११, योगिनीचक्र १२, राहु १३, ऐसा ग्रन्थ वांचने से मालूम हुआ कि छंदों में कई एक स्थान शुक्र १४, कीलक योग १५. परिधचक्र १६, पंचक १७, शूल पर कर्ता ने अपना नाम जोड़ा है।
१८, रविचार १६, स्थिरयोग २०, सर्वाकयोग २१, रवियोग इस ग्रथ की दूसरी रचना प्राकृत गाथाबद्ध है, इसकी २२, राजयोग २३, कुमारयोग २४, अम्चन योग २५, ज्वालाएक प्रति जालोर ( राजस्थान ) मे ज्ञानमुनि मण्डली मुखी योग २६, शुभयोग २१, अशुभयोग २८, अद्ध - लायब्ररी में है, प्रति में मुख्य ग्रथ के अलावा प्रत्येक पन्ने प्रहर २६, कालवेला ३०, कुलिकयोग ३१, उपकुलिकके चारों तरफ खाली जगह में टिप्पणियां लिखी हुई हैं, योग ३२, कंटकयोग ३३, कर्कटयोग ३४, यमघंटयोग ३५, परन्तु ग्रथ का अन्तिम भाग कुछ बिना लिखा रह गया है। उत्पातयोग ३६, मृत्युयोग ३७, काणयोग ३८, सिद्धिइसकी दूसरी प्रति नाहटाजी ने कलकत्ता गुलाबकुमारी योग ३६, खंजयोग ४., यमलयोग ४१, संवर्तकयोग ४२, लायब्ररी से लाकर मेरे पास भेजी थी यह पूर्ण लिखी हुई आडलयोग ४३, भस्मयोग ४४, उपग्रहयोग ४५, दंडथी। ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकार की प्रशस्ति होने से मालूम योग ४६, हालाहलयोग ४७, वज्रमूसलयोग ४८, यमदंष्ट्राहुआ कि- 'वृहत्खरतरगच्छीय जंगमयुगप्रथान भट्टारक योग ४६, कंभचक्र ५०, भद्रा (विष्टि) योग ५१, कालपाशजैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी के विजयराज्य में पंडित योग ५२, छींक विचार ५३, विजययोग ५४, गमनफल ५५, हीरकलश मुनि ने विक्रमसंवत् १६२७ के वर्ष में रचना की ताराबल ५६, ग्रहचक्र ५७, चन्द्रावस्था ५८ और है । सम्पूर्ण ग्रन्थ में लगभग १२०० गाथायें हैं। इनके दो करण ५६ ।" अध्याय तरंगों के नाम से रखा है। प्रथम तरंग में ५६ इतने विषयवाले प्रथमतरङ्ग में ४१६ गाथार्य हैं । विषय हैं। प्रथम मंगलाचरण यह है
इसके अन्त में ग्रन्थकार ने लिखा है कि-"इतिश्रीखरतर
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