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। ७३ ] कौतुकं मह दिदं यदमूषामप्यनश्यदखिलो खलु तापः अन्य आठ छन्दों के नाम इस प्रकार हैं- द्रुतविलम्बित,
॥४॥४४ उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, स्वागता, विरोधाभास-दिग्देव्योऽपि रसलीनाः सभ्रमा अप्यविभ्रमाः। रथोद्धता, इन्द्रवंशा, उपजाति, (इन्द्रवंशा + वंशस्य) वामा अपि च नो वामा भूषिता अप्यभषिताः तथा शालिनी । पंचम सर्ग में सात छन्दों को अपनाया
___ गया है-उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), इन्द्रवज्रा, पर्यायोक्ति-रण रात्रौ महीनाथ ! चन्द्रहासो विलोक्यते। वसन्ततिलका, वंशस्थ, प्रमिताक्षरा, रथोद्धता तथा शार्दूवियुज्यते स्वकान्ताभ्यश्चक्रवाकैरिवारिभिः
लविक्रीडित । छठे सर्ग में पांच छन्द दृष्टिगोचर होते हैं।
इनमें उपजाति की प्रमुखता है। शेष चार छन्द हैं॥ ८२७
उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित तथा मालिनी । विषम- मोदकः क्वौक शाश्चात्र क्व सपि:खण्डमोदकः । क्वेदं वैषयिक सौख्यं क्वचिदानन्दजं सुखम् ।।६।२२
अष्टम सर्ग में प्रयुक्त छन्दों की संख्या ग्यारह है। उनके
नाम इस प्रकार हैं-द्रुतविलम्बित, इन्द्रवज्रा, विभावरी, छन्दयोजना
उपजाति (वंशस्य + इन्द्रवंशा), स्वागता, वैतालीय भावव्यंजक छन्दों के प्रयोग में कीतिराज पूर्णत: सिद्ध- नन्दिनी, तोटक, शालिनी, स्रग्धरा तथा एक अज्ञातनामा हस्त हैं। उनके काव्य में अनेक छन्दों का उपयोग विषम वृत्त । इस सर्ग में नाना छन्दों का प्रयोग ऋतुकिया गया है। प्रथम, सप्तम तथा नवम सर्ग में अनुष्टुप परिवर्तन से उदित विविध भावों को व्यक्त करने में पूर्णकी प्रधानता है। प्रथम सर्ग के अन्तिम दो पद्य मालिनी तया सक्षम है । बारहवें सर्ग में भी ग्यारह छन्द प्रयोग में तथा उपजाति छन्द में हैं, सप्तम सर्ग के अन्त में मालिनी का लाए गये हैं । वे इस प्रकार हैं- नन्दिनी, उपजाति प्रयोग हुआ है और नवम सर्ग का पैंतालीसवां तथा अन्तिम (इन्द्रवंशा +- वंशस्थ), उपजाति ( इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रपद्य क्रमशः उपगीति तथा नन्दिनी में निबद्ध है। ग्यारहवें वज्रा), रथोद्धता, वियोगिनी, द्रुतविलम्बित, उपेन्द्रवज्रा, सर्ग में वैतालीय छन्द अपनाया गया है। सर्गान्त में उप- अनुष्टुप्, मालिनी, मन्दाक्रान्ता तथा आर्या । दसवें सर्ग की जाति तथा मन्दाक्रान्ता का उपयोग किया गया है। रचना में जिन चार छन्दों का आश्रय लिया गया है, उनके तृतीय सर्ग की रचना उपजाति में हुई है। अन्तिम दो नाम इस प्रकार हैं-उपजाति (इन्द्रवज्रा + उपेन्द्रवज्रा), पद्यों में मालिनी का प्रयोग हुआ है। शेष सात सर्गों में शार्दूलविक्रीडित, इंद्रवज्रा तथा उपेन्द्रवज्रा । इस प्रकार कवि ने नाना वृत्तों के प्रयोग से अपना छन्दज्ञान प्रदर्शित नेमिनाथ महाकाव्य में कुल मिला कर पच्चीस छन्द प्रयुक्त करने की चेष्टा की है। द्वितीय सर्ग में उपजाति (वंशस्थ हुए हैं। इनमें उपजाति का प्रयोग सबसे अधिक है। इन्द्रवंशा), इन्द्रवंशा, वंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपजाति (इन्द्रवज्रा इस काव्य के मूलमात्र का संस्करण यशोविजय उपेन्द्रवज्रा), वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित तथा शालिनी, ग्रन्थमाला भावनगर से सं० १९७० में प्रकाशित हुआ है। इन आठ छन्दों को प्रयुक्त किया गया है। चतुर्थ सर्ग को उसके बाद आधुनिक टीका सहित एक पत्राकार संस्करण रचना नौ छन्दों में हुई है। इनमें अनुष्टुप् का प्राधान्य है। भी प्रकाशित हुआ है ।
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