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उपाध्याय जयसागरजी की विज्ञति-त्रिवेणी द्वारा अनेक खरतरवसतो तु श्रेयसां धाम शान्तिनये तथ्य और जैन इतिहास तथा अप्रसिद्ध तीर्थ सम्बन्धी स्त्रयतिदमभिनम्याह्लादभावं भजामि ॥१८॥" महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है । मुनि जिनविजयजी ने पंजाब और सिन्ध प्रदेश में शताब्दियों तक खरतरगच्छ लिखा है कि विज्ञप्ति त्रिवेणी रूप पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से का बहुत अच्छा प्रभाव रहा है । इस सम्बन्ध में मेरा लेख बड़े महत्व का है। इसमें लिखा गया वृत्तांत मनोरंजक "सिन्ध प्रान्त और खरतरगच्छ" द्रष्टव्य है। होकर जैन समाज की तत्कालीन परिस्थिति पर अच्छा हमारे ऐतिहासिक जेन काव्य संग्रह में जयसागरोपा. प्रकाश डालता है । उस समय भारत के उन (सिन्धु पंजाब) ध्याय सम्बन्धी जो महत्त्वपूर्ण विवरण सं० १५११ का प्रदेशों में भी जैन धर्म का कैसा अच्छा प्रचार व सत्कार लिखा हुआ छपा है उसका सार इस प्रकार है-- था। इन प्रदेशों में हजारों जैन बसते थे व सैकड़ों जिना- "उज्जयन्त शिखर पर नरपाल संघपति ने "लक्ष्मीलय मौजद थे जिनमें का आज एक भी विद्यमान नहीं। तिलक' नामक विहार बनाना प्रारंभ किया तब अम्बादेवी, जिन मरुकोट, गोपस्थल, नन्दनवनपुर और कोटिल्लग्नाम आदि श्री देवी आपके प्रत्यक्ष हुई और सैरिसा पाश्वनाथ जिनालय तीर्थस्थलों का इसमें उल्लेख है उनका आज कोई नाम में श्री शेष, पद्मावती सह प्रत्यक्ष हुआ था। मेदपाटतक भी नहीं जानता । जहाँ पर पांच पांच दस दस साध देशवर्ती नागदह के नवखण्डा-पार्श्व चैत्यालय में श्रीसरस्वती चातुर्मास रहा करते थे वहां पर आज दो घण्टे ठहरने के देवी आप पर प्रसन्न हुई थी। श्री जिनकुशलसूरिजी आदि लिये भी यथेष्ट स्थान नहीं। जिस नगरकोट महातीर्थ की देवता भी आप पर प्रसन्न थे। आपने पूर्व में राजगृह नगर यात्रा करने के लिए इतनी दूर दूर से संघ जाया करते थे उद्दड़-विहारादि, उत्तर में नगरकोट्टादि, पश्चिम में नागद्रह वह नगरकोट कहां पर आया है इसका भी किसी को पता आदि को राजसभाओं में वादि वृन्दों को परास्त कर नही।
विजय प्राप्त की थी। आपने सन्देह, दोलावली वृत्ति, ___ इसमें केवल अलंकारिक वर्णन ही नहीं है परन्तु एक पृथ्वीचन्द्र चरित, पर्व रत्नावलो, ऋषभस्तव, भावारिवारण विशेष प्रसंग का सच्चा और सम्पूर्ण इतिहास भो है। वृत्ति एवं संस्कृत प्राकृत के हजारों स्तवनादि बनाये । ऐसा पत्र अभी तक पूर्व में कोई नहीं प्रगट हुआ। यह एक अनेकों श्रावकों को संघपति बनाये और अनेक शिष्यों को बिल्कुल नई ही चीज है।"
पढ़ाकर विद्वान बनाये।" ___ नगरकोट कांगड़ा में बहुत प्राचीन प्रतिमा थी। इसमें उल्लिखित गिरनार के नरपाल कृत "लक्ष्मीखरतरगच्छ के आचार्य जिनेश्वरसूरिजी के प्रतिष्ठित और तिलक प्रासाद" के संबन्ध में रत्नसिंहसूरि रचित गिरनार साधु खीमसिंह कारित शांतिनाथ मंदिर व मूति का तीर्थमाला में भी उल्लेख मिलता हैउपाध्यायजी ने वहां दर्शन किया। वहां के राजा भी थापी श्री तिलक प्रासादहि, साहनरपालि परंपरा से जैन थे। नरेन्द्र रूपचंद के बनाये हुए मंदिर में
पुण्य प्रसादिहिं सोवनमयसिरिवीरो" स्वर्णमय महावीर बिम्बको भी उन्होंने नमन किया। यहां महो० जयसागर जिनराजसूरिज़ो के शिष्य थे अतः को खरतरवसही का उल्लेख करते हुए लिखा है --- उनकी दीक्षा सं० १४६० के आस-पास होनी चाहिये । "अपि च नगरकोट्टे देशजालन्धरस्थे
इनकी दीक्षा बाल्यकाल में हुई, ऐसा प्रशस्ति में उल्लेख है, प्रथम जिनपराजः स्वर्णमूर्तिस्तु वीरः
अतः दस-बारह वर्ष की आयु में दीक्षित होने से जन्म सं०
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