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प्रगटप्रभावी दादा श्रीजिनकुशलसूरि
[ भँवरलाल नाहटा ]
पुत्र
प्रगटप्रभावी, भक्तवत्सल लीसरे दादा साहब श्री जिनकुशलसूरि अत्यन्त उदार और अपने समय के युगप्रधान महापुरुष थे I आप मारवाड़ सामियाणा के छाजहड़ गोत्रीय मंत्रि देवराज के पुत्र जेसल या जिल्हागर के थे और आपका जन्मनाम कर्मण था । सं० १३३७ मिती मार्गशीर्ष कृष्ण ३ सोमवार के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में आपका जन्म हुआ । आपके खानदान में धार्मिक संस्कार अत्यन्त श्लाघनीय थे । खरतरगच्छ नायक, चार राजाओं को प्रतिबोध करने वाले कलिकाल - केवली श्री जिनचन्द्रसूरि के पास आपने वैराग्यवासित होकर सं० १३४७ फाल्गुन शुक्ला ८ के दिन दीक्षा ली । गुरुमहाराज संसारपक्ष में आपके चाचा होते थे । आपका दीक्षानाम कुशलकीर्ति रखा गया । उस समय उपाध्याय विवेकसमुद्र, गच्छ में गीतार्थ और वयोवृद्ध थे जिनके पास बड़े-बड़े विद्वान आचार्यों ने व्याकरण, न्याय, तर्क, अलंकार, ज्योतिष आदि का अध्ययन किया था । कुशलकीर्तिजी का विद्याध्ययन भी आपके पास हुआ और सर्वत्र विचरते हुए शासन प्रभावना करने लगे । सं० १३७५ माघसुदि १२ को आप गुरुमहाराज द्वारा वाचनाचार्य पद से विभूषित हुए ।
सम्राट
कुतुबुद्दीन से निर्विरोध तीर्थयात्रा का फरमान प्राप्त महतियाण अचल सिंह के साथ श्रीजिनचन्द्रसूरिजी महाराज हस्तिनापुर एवं मथुरा की यात्रा कर खंडासराय पधारे। वहाँ कम्परोग उत्पन्न होते पर अपना आयु-शेष निकट ज्ञात कर अपने पट्ट पर वा० कुशलकीर्ति गणि को अभिषिक्त करने का निर्देश-पत्र राजेन्द्रचन्द्राचार्य के नाम से विजयसिंह को सौंपा। सूरिजी राणा aroda aौहान की निति से मेहता पधारे। वहां २४ विम
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रहकर कोशवाणा पधारे और वहीं सं० १३७६ मिती आषाढ़ शुक्ल ६ को अनशनपूर्वक स्वर्गवासी हुए ।
उस समय गुजरात की राजधानी पाटण में खरतर - गच्छ का प्रभुत्व बढ़ा-चढ़ा था । गच्छ के कर्णधारों ने यहीं पर आचार्य पद - महोत्सव करने का निर्णय किया । बड़े-बड़े आचार्य व श्रमणों सहित गुजरात, सिध, राजस्थान और दिल्ली प्रदेश आदि के संध को निमन्त्रित कर बुलाया गया । सं० १३७७ मिती जेष्ठ कृष्ण ११ कुंभ लग्न में आचार्य पद का अभिषेक हुआ। उस समय राजेन्द्रचन्द्राचार्यजी के साथ उपाध्याय, वाचनाचार्यादि ३३ साधु और २३ साध्वियाँ थीं । सुश्रावक जाल्हण के पुत्र तेजपाल, रुद्रपाल, जो मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र बच्छावत के पूर्वज थे, ने प्रचुर द्रव्य कर महोत्सव मनाया । उन्होंने उस समय १०० आचार्य, ७ ० साधु और २४०० साध्वियों को अपने घर बुलाकर प्रतिलाभ कर वस्त्र पहिराये। भीमपल्ली, पाटण, खंभात, बीजापुर आदि के संघ ने भी उत्सव में उल्लेखनीय योगदान किया था। वा० कुशलकीर्ति का नाम श्रीजिनकुशलसूरि प्रसिद्ध किया गया ।
सूरिजी सं० १३७८ का चातुर्मास भोमपल्ली करके दोक्षा, मालारोपण, पदवी दान आदि अनेक धर्मप्रभावक कार्य करके अपने ज्ञानबल से विद्या- गुरु उपाध्यायश्री विवेकसमुद्रजी का आयुशेष निकट ज्ञातकर पाटण पधारे और ज्येष्ठ कृष्ण १४ के दिन उन्हें अनशन करवा दिया। उपाध्यायजी पंच परमेष्ठी ध्यान पूर्वक ज्येष्ठ शुक्ल २ को स्वर्गवासी हुए । सूरिजी ने मिती आषाढ़ शुक्ल १३ के दिन उनके स्तूप की प्रतिष्ठा की ओर नहीं चातुर्मास किया ।
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