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। ५१ ] के रास्ते में रहने वाले गणेश मुसव्वर ( चित्रकार ) को (१) १ शासन देवताने कोकड़ी ६ दोनो (२) श्री बंगाल में बुलाया गया और उसने बालूचर व कलकत्ता में अभयदेवसूरि (३) पोशाल (२) अभयदेवसूरि (३) लगभग पन्द्रह वर्ष रहकर सैकड़ों जैनचित्रों का निर्माण १ जयतिहुअण स्तवना करी श्री थंभणा पार्श्वनाथजी प्रगट किया। वे चित्र कलासमृद्धि में अपूर्व और मूल्यवान हैं। भया जमीन से, णवण कराया ४ पखाल छोंटता रोग गया यदि उन समस्त चित्रों का सांगोपांग वर्णन लिखा जाय रक्तपित्तीका । तो सैकड़ों पेज हो सकते हैं पर हम यहां केवल दादासाहब (२) श्री जिनदत्तसूरि, श्री जिनकुशलसूरि-यह चित्र आदि के चित्रों का ही संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं।
७५४ १७ इंच का है जिसमें दोनों दादा गुरुओं के चित्रों में १ श्री अभयदेवसूरिजी-यह चित्र ७३४१७ इच विभिन्न भाव हैं। चित्र के वाम पार्श्व में श्री जिनदत्तसूरिजी का है। इस चित्र में दाहिनी ओर नगर का दृश्य है जिसके महाराज विराजमान हैं जिनके समक्ष ५२ वीर [१८] तीनों ओर परकोटा और दो दरवाजे दृष्टिगोचर होते हैं। एवं पृष्ठ भाग में ६४ योगिनी ( २४ ) अवस्थित हैं । गुरुनगर के तीन स्वर्णमय शिखर वाले जिनालयो पर ध्वजादण्ड देवके आगे स्थापनाजी एवं हाथ में मुखवस्त्रिका है । दूसरा सुशोभित है। सामने पोषधशाला में श्री अभयदेवसूरिजी पंचनदी का भाव है जिनके तटपर पाँच मन्दिर बने हुए महाराज विराजमान हैं जिनके समक्ष श्यामवर्णवाली है। पाँचों पीर गुरुदेव के समक्ष करबद्ध खड़े हैं। तीसरा शासनदेवी उपस्थित है जिसके सुनहरे जरो के वस्त्र व मुकुट अजमेर के उपाश्रय का है जिसमें गुरुदेव अपने ६ शिष्यों के अलंकारादि पहने हुए हैं । शासन देवो नौ कोकड़ी सुलझाने साथ प्रतिक्रमण कर रहें हैं और कड़कती हुई बिजली को के लिए आचार्यश्री को दे रही है। बाहर अभयदेवसूरि जी पात्र के नीचे दबा देते हैं। चौथा भाव गुरुदेव के नगर महाराज अपने दश शिष्यों के साथ विहार करके जा रहे प्रवेश का है, घोड़े के नीचे दबकर मरे हुए मुगलपुत्र को हैं । साथ में आठ श्रावक तथा दो बालक भी चल रहे हैं। तीन मुसलमान उठाकर लाते हैं। वृक्ष के नीचे बैठे हुए सूरि महाराज एक पलाश वृक्ष के नोचे जयतिहुअण स्तोत्र द्वारा गुरुदेव उसे मंत्रशक्ति से जिला देते हैं। पाँच मुसलमान प्रभु की स्तवना करते हैं । पास में ६ साधु बैठे हैं और सात करबद्ध खड़े हैं। गुरुदेव के पृष्ठ भागमें पाँच शिष्य बैठे हैं श्रावक खड़े हैं । जंगल में जहां गाय का दूध झरता था, गुरुदेव के विहार में पीछे छत्रधारी व्यक्ति व नौ शिष्य दिखाये स्तंभन पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा प्रकट होती है । एक हैं, सामने १६ श्रावक चल रहे हैं जिनकी पगड़ी पर शिरपेच श्रावक के हाथ में प्रतिमा है। फिर सिंहासन पर विराज- बंधे है, लम्बे श्वेत जामे पहिन कर कमरबंद व उतरासत मान करके श्रावक लोग स्वर्णकलशों से अभिषेक करते हैं। लगाया हआ है। दो श्रावक प्रभुको न्हवण कराते हैं, चार श्रावक कलश लिये पाँचवाँ भाव श्रीजिनकुशलसूरिजी से सम्बन्धित खड़े हैं। एक श्रावक फिर प्रभु का न्हवण जल लाकर मालूम देता है। नगर के मध्य में गुरुदेव उपाश्रय में प्रवचन सूरिजी के ऊपर छींटता है जिससे रोग निवारण हो जाता कर रहे हैं । पाँच साधु सामने खड़े हैं, सात श्रावक बेठे है। पृष्ठभूमि में खजूर, ताड़, आम्र, अशोकादि के वृक्ष हुए व्याख्यान सुन रहे हैं, भक्त की दुखभरी पुकार सुन कर विद्यमान हैं । मैदान और टीलों पर कहीं-कहीं हरियाली डूबती हुई नौका को किनारे के दृश्य में हाथ के सहारे से छाई हुई है। चित्र परिचय में निम्नोक्त वाक्य लिखे हुए तिरा देते हैं। चित्रकार ने चित्र-परिचय रूप कुछ भी नहीं
लिखा है।
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