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लाभ जानकर मुनि हर्षविशाल और पंचानन महात्मा आदि धर्म की विधि के अनुसार उत्सव करने की आज्ञा दी । कर्मके साथ वाचकजी को भी भेजा। मिती श्रावण शुक्ल १३ चन्द्रने राजा रायसिंहजी की अनुमति पाकर संघ को को प्रथम प्रयाण राजा रामदास की वाड़ी में हुआ। एकत्र किया और संघ-आज्ञा प्राप्त कर फाल्गुण कृष्ण १० उस समय सम्राट, सलीम तथा राजा, महाराजा और से अष्टाह्निका महोत्सव प्रारम्भ किया और फाल्गुन शुक्ल २ विद्वानों की एक विशाल सभा एकत्र हुई जिसमें सूरिजी के दिन मध्याह्न में श्री जिनसिंहसूरि का आचार्य पद, वा० को भी अपनी शिष्य-मण्डली सहित निमन्त्रित किया। इस जयसोम और रत्ननिधान को उपाध्याय पद एवं पं० गुणसभा में समयसुन्दरजी ने 'राजानो ददते सौख्यं' वाक्य के विनय व समयसुन्दर को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया १०२२४०७ अर्थ वाला अष्टलक्षी ग्रन्थ पढ़कर सुनाया। गया। यह उत्सव संखवाल साधुदेव के बनाये हुए खरतर सम्राट ने उसे अपने हाथ में लेकर रचयिता को समर्पित गच्छोपाश्रय में हुआ । मन्त्रीश्वर ने दिल खोलकर अपार धन करके प्रमाणीभूत घोषित किया।
राशि व्यय की। सम्राट ने लाहोर में तो अमारि उद्घोकश्मीर जाते हुए रोहतासपुर में मंत्रीश्वर को शाही षणा की ही पर सूरिजी के उपदेश से खंभात के समुद्र के अन्तःपुर की रक्षा के लिए रुकना पड़ा। वाचकजी सम्राट असंख्य जलचर जीवों को भी वर्षावधि अभयदान देने का के साथ में थे। उनके उपदेश से मार्गवर्ती तालाबों के फरमान जारी किया। "युगप्रधान" गुरु के नाम पर जलचर जीवों का मारना निषिद्ध हुआ। कश्मीर के कठिन मंत्रीश्वर ने सवा करोड़ का दान किया। सम्राट के व पथरीले मार्ग में शीतादि परिषह सहते हुए पैदल चलने सन्मुख भी दस हजार रुपये, १० हाथी, १२ घोड़े और २७ वाले वाचकजी की साधुचर्या का सम्राट के हृदय में गहरा तुक्कस भेंट रखे जिसमें से सम्राट ने मंगल के निमित्त केवल प्रभाव पड़ा। विजय प्राप्त कर श्रीनगर आने पर वाचक १ रुपया स्वीकार किया। सूरिमहाराज ने बोहित्य संतति जी के उपदेश से सम्राट ने आठ दिन तक अमारि उद्- को पाक्षिक, चातुर्मासिक, व सांवत्सरिक पर्वो में जयतिहु प्रण घोषणा करवाई।
बोलने का व श्रीमालों को प्रतिक्रमण में स्तुति बोलने का सं० १६४६ के माघ में लाहोर लौटने पर सूरिजी ने आदेश दिया। राजा रायसिंहजी ने कितने ही आगमादि साधुमंडली सहित जाकर सम्राट को आशीर्वाद दिया। ग्रन्थ सूरिमहाराज को समर्पण किये जिन्हें बीकानेर ज्ञानसम्राट ने वाचक जी को कश्मीर प्रवास में निकट से देखा भण्डार में रखा गया। था अत: उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए इन्हें आचार्य सूरिजी लाहोर में धर्म-प्रभावना कर हापाणा पधारे पद से विभूषित करने के लिए सूरिजी से निवेदन किया। और सं० १६५० का चातुर्मास किया। एक दिन रात्रि के __सूरिजी को सम्मति पाकर सम्राट ने मंत्री कर्मचन्द्र से समय चोर उपाश्रय में आये पर साधुओं के पास क्या रखा कहा-वाचकजी सिंह के सदृश चारित्र-धर्म में दृढ़ हैं अतः था? बीकानेर ज्ञानभण्डार के लिए प्राप्त ग्रन्यादि चुरा कर उनका नाम 'सिंहसूरि' रखा जाय और बड़े गुरु महाराज चोर जाने लगे तो सूरिजी के तपोबल से वे अन्धे हो गये के लिए ऐसा कौन सा सर्वोच्च पद है जो तुम्हारे धर्मानुसार और पुस्तके वापस आ गई। सम्राट के पास लाहौर में उन्हें दिया जाय । कर्मचन्द्र ने जिनदत्तसूरि जी का जीवनवृत्त जयसोमोपाध्यायादि चातुर्मास स्थित थे ही, सूरि महाराज बताया और उनके देवता प्रदत्त युगप्रधान पद से प्रभावित ने लाहोर आकर सं० १६५१ का चातुर्मास किया जिससे होकर अकबर ने सूरिजी को 'युगप्रधान' घोषित करते हुए जैन अकबर को निरन्तर धर्मोपदेश मिलता रहा। अनेक
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