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जानने वाले बड़े-बड़े पण्डित इनके आश्रित-सेवा में रहते और विशिष्टता वाला जो कार्य किया है वह भिन्न-भिन्न थे। इनके उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य और सत्य-व्रत को देखकर लोक स्थानों में विशाल पुस्तकालय स्थापित कराने का है। इन्हें स्थलिभद्र की उपमा देते थे। इनके वचन को सब इन्होंने जैसे और जितने शास्त्र भण्डार स्थापित किये. कोई आस वचन की तरह स्वीकारते थे। इन्होंने अपने कराये, वैसे शायद ही अन्य आचार्य ने किये-करवाये हों। सौभाग्य से शासन को अच्छी तरह दीपाया-शोभाया था। इस ग्रन्थोद्धार कार्य के प्राचुर्य में इनके और सुकृत मानो गिरनार, चित्रकूट ( चित्तौड़गढ़ ), मांडव्यपुर ( मंडोवर) गौण हो गए थे। आदि स्थानों में इनके उपदेश से श्रावकों ने बड़े-बड़े जिन अष्टलक्षी के प्रशस्नि पद्य से जैसलमेर, जावालपुर, भुवन बनाये थे। अणहिल्लपुर पाटण आदि स्थानों में देवगिरि ( दौलताबाद ) अहिपुर और पाटण इन पांच विशाल पुस्तक भडार स्थापन करवाये थे। मंडपदुर्ग, स्थानों के भंडारों का मण्डप दुर्ग ( मांडवगढ़ ), आशापल्ली प्रल्हादनपुर (पालनपुर ), तलपाटक आदि नगरों में या कर्णावतो और खम्भायत-इन तीन और अन्य भंडारों अनेक जिनबिम्बों की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा की यी। इन्होंने का उल्लेख मिलता है। अपनी बुद्धि से अनेकान्त जयपताका जैसे प्रखर तर्क ग्रन्थ जैसलमेर खरतरगच्छ का प्रधान स्थान था। जिनऔर विशेषावश्यक भाष्य जैसे सिद्धान्तग्रन्थ अनेक मुनियों भद्रसूरि इस गच्छ के नेता थे। इन्होंने जैसलसेर के शास्त्र को पढ़ाए थे। ये कर्मप्रकृति और कर्मग्रन्थ जैसे गहन संग्रह के उद्धार का संकल्प किया। अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थों के रहस्यों का विवेचन ऐसा सुन्दर और सरल करते लेखक इस काम के लिए रोके गये और उनके द्वारा ताड़थे कि जिसे सुनकर भिन्नगच्छ के साधु भी चमत्कृत होते पत्र और कागजों पर नकलें करायी जाने लगीं। जिनथे और इनके ज्ञान की प्रशंसा करते थे। राउल श्री भद्रसूरि स्वयं भिन्न-भिन्न प्रदेशों में फिरकर श्रावकों को वैरिसिह और त्र्यंबकदास जैसे नृपति इनके चरणों में भक्ति- शास्त्रोद्धार का सतत उपदेश देने लगे। इस प्रकार सं० पूर्वक प्रणाम किया करते थे। इस प्रकार ये अचार्य बड़े
१४७५ से १५१५ तक के ४० वषों में हजारों बल्कि शान्त, दान्त, संयमी, विद्वान और पूरे योग्य गच्छपति थे। लाखों ग्रन्थ लिखवाये और उन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों में ___इनके उपदेश से जैसलमेर के श्रावक सा• शिवा, महिष, रखकर अनेक नये पुस्तक भंडार कायम किये । लोला और लाखण नाम के चार भ्राताओं ने संवत १४६४ पाटण और आशापल्ली के भडार एक ही श्रावक के में बड़ा भव्य जिनमन्दिर बनवाया जिसकी प्रतिष्ठा इन्होंने लिखाये हुए नहीं थे किन्तु कई गृहस्थों ने अपनी इच्छासंवत् १४६७ में की थी और संभवनाथ प्रभृति तीन सौ नुसार एक, दो अथवा दस, बीस पुस्तकें लिखवा कर इनमें जिनबिम्ब प्रतिष्ठित किये थे। इस प्रतिष्ठा में उक्त चार रख दी थीं। परन्तु खंभायत का भण्डार एक ही श्रावक भाइयों ने अगणित द्रव्य खर्च किया था।
धरणाक ने तैयार करवाया था यह परीक्ष गोत्रीय सा० ___ और भी अनेक स्थानों में बड़े-बड़े जिनमन्दिर बनवाये, गूजर का पुत्र और स० साइया का पिता था। प्रतिष्ठामहोतव करवाये और हजारों जिनबिम्ब प्रतिष्ठित मण्डपदुर्ग के श्रीमाली सोनिगिरा वंशीय मंत्रीश्रीमंडन किये थे।
और धनदराज बड़े अच्छे विद्वान थे। मण्डन का वंश और जिनभद्रसूरि और पुस्तक भाण्डागार
कुटुम्ब खरतरगच्छ का अनुयायी था। इन भ्राताओं जिनभद्रसूरि ने अपने जीवन में सबसे अधिक महत्वका ने जो उच्चकोटि का शिक्षण प्राप्त किया था वह इसी
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