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(1)
हुए जब पूर्ण युवा श्री वीर, कांति से जगमग हुआ शरीर । हृदय प्रति कोमल, वत्सल, धीर मिष्ट बोली मृदु, गुरु, गम्भीर ॥ (2)
यशोदा राजकुवरि सुकुमार, कलिंगाधिप बेटी मनुहार । राव जितशत्रुहिं किया विचार"योग्य हैं इसके वीर कुमार "
वीर प्रभु की दीक्षा
( 3 )
वीर के मात-पिता के पास | संदेशा दे कर भेजा दास ॥ मातु त्रिशला को हुआ हुलास । पिता सिद्धार्थ मुदित मन-हास || (4 )
वीर थे इन भावों से दूर | विनय भर वाणी में भरपूर कहा - "धन- कंचन - कामिनि धूर | चित की चाह करू चकचूर ॥ ( 5 )
बहुत दुर्लभ है मानव देह छोड़कर सकल जगत से नेह सहूं सर्दी गर्मी, मेह खोज पथ जाऊं शाश्वत गेह ॥" ( 6)
सब
नहीं था यद्यपि प्रकट निमित्त, खिला वैराग्य वीर के चित्त, विषमयी ज्वाला के सम भोग, जगत के लगे भयानक रोग |
( 7 ) प्रभु ने मन में किया विचार, नहीं है जग में कोई सार,
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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चांदनी दिखती दिन दो चार, सभी नश्वर है घर परिवार ॥ 8 )
(
राव- राजा,
हय - गज - श्रसवार
मरें सब अपनी-अपनी बार सहोदर, मात-पिता, परिवार नहीं है कोई बचावनहार ॥
(9 >
द्रव्य बिन निर्धन मन को मार, धनी - तृष्णा में विविध प्रकार, विकल सब फिरें बीच संसार, करें मानव जीवन बेकार || ( 10 )
अकेला जीव जगत में पाए । मरण पर पुनः प्रकेला जाए || न साथी सगा बंधु या भाए । कर्म-फल जीव अकेला पाए ।
( 11 >
देह छुटने नहिं अपना कोय, द्रव्य, घर, बंधु चार दिन चर्चा
पराया होय, करते रोय,
भूलते फिर भोगों
में खोय ||
( 12
>
चमकती चाम चढ़ी यह देह ऊपरी सज्जा वश सब नेह महा दुर्गंध भरी घिन गेह राग तज तन से रहें विदेह |
( 13 >
मोह वश रुले जीव संसार, लिए कर्मों का गुरुतर भार, सरल शुचि निर्मल हो व्यवहार, बंद हो तब कर्मों का द्वार ॥
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