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मान्य रहे है । सामान्यतया जैन परम्परा में प्रवक्तव्यता को स्वीकार करती है, निरपेक्ष को प्रवक्तव्यता के प्रथम तीनों निषेधात्मक अर्थ मान्य नहीं। अर्थात् वह यह मानती है कि वस्तुतत्व नहीं रहे हैं । उसका मान्य अर्थ यही है कि सत् पूर्णतया वक्तव्य तो नहीं है किन्तु वह पूर्णतया और प्रसत दोनों का युगपत् विवेचन नहीं किया प्रवक्तव्य भी नहीं है। यदि हम बस्तुतत्व को जा सकता है इसलिए वस्तुतत्व प्रवक्तव्य है किन्तु पूर्णतया अवक्तव्य अर्थात अनिर्वचनीय मान लेंगे तो यदि हम प्राचीन जैन आगमों को देखें तो प्रवक्त- फिर भाषा एवं विचारों के प्रादान प्रदान का कोई व्यता का यह अर्थ अन्तिम नहीं कहा सकता है। अर्थ ही नहीं रह जावेगा। अतः जैन दृष्टिकोण प्राचारांग सूत्र में प्रात्मा के स्वरूप को जिस रूप में
वस्तुतत्व की अनिर्वचनीयता को स्वीकार करते हुए वचनागोचर कहा गया है वह विचारणीय है । वहां भी यह मानता है कि सापेक्ष रूप से वह अनिर्वचकहा गया है कि प्रात्मा ध्वन्यात्मक किसी भी शब्द नीय है । सत्ता अंशतः निर्वचनीय है और अंशतः की प्रवृति का विषय नहीं है। वाणी उसका निर्वचन
अनिर्वचनीय । क्योंकि यही बात उसके सापेक्षवादी करने में कथमपि समर्थ नहीं है, वहां वाणी मूक हो दृष्टिकोण और स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुकूल है। जाती है, तक की वहां तक पहुंच नहीं है, बुद्धि
इस प्रकार पूर्व निर्दिष्ट पांच अर्थों में से पहले दो (मति) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह को छोड़कर अन्तिम तीनों को मानने में उसे कोई वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं हैं किसी ,
बाधा नहीं पाती है । मेरी दृष्टि में प्रवक्तव्य भंग उपमा के द्वारा भी उसे नहीं समझाया जा सकता है
का भी एक ही रूप नहीं है, प्रथम तो 'है' और क्योंकि उसे कोई उपमा नहीं दी जा सकती, वह नहीं हैं ऐसे विधि प्रतिषेध का युगपद् (एक ही अनुपम है, अरूपी सत्तावान है। उस अपद का
साथ) प्रतिपादन सम्भव नही है अत: प्रवक्तव्य भंग कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा काइ शब्द नहा ह की योजना है। दूसरे निरपेक्ष रूप से वस्तुतत्व का जिसके द्वारा उसका निरूपण किया जा सके ।
कथन सम्भव नहीं है । अतः वस्तुतत्व प्रवक्तव्य है। इसे देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप
तीसरे अपेक्षाएं अनन्त हो सकती हैं किन्तु अनन्त ही कुछ ऐसा है कि उसे वाणी का माध्यम नहीं
अपेक्षाओं के युगपद् रूप में वस्तुतत्व का प्रतिपादन बनाया जा सकता है । पुनः वस्तुतत्व की अनन्त
सम्भव नहीं है इसलिए भी उसे प्रवक्तव्य मानना धर्मात्मकता और शब्द संख्या की सीमितता के
होगा। इसके निम्न तीन रूप है : प्राधार पर भी वस्तुतत्व को प्रवक्तव्य माना गया है, प्राचार्य नेमीचन्द्र ने गोमट्टसार में अनभिलाप्य भाव (I) (प्र-अ.) उ. अवक्तव्य है। का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अनुभव में (2) ८ . अवक्तव्य है। प्राये वक्तव्य भावों का अनंतवां भाग ही कथन (3) (प्र° )य-73 प्रवक्तव्य है। किया जाने योग्य है । अतः यह मान लेना उचित
सप्तभंगी के शेष चारों भंग संयोगिक हैं। नहीं है कि जैन परम्परा में प्रवक्तव्यता का केवल
विचार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की दृष्टि से एक ही अर्थ मान्य है।
इनका महत्त्व तो अवश्य है किन्तु इनका अपना कोई इस प्रकार जैन दर्शन में प्रवक्तव्यता के चौथे, स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं है, वे अपने संयोगी मूल पांचवें और छठे अर्थ मान्य रहे हैं। फिर भी हमें भंगों की अपेक्षा को दृष्टिगत रखते हुए ही वस्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि सापेक्ष और प्रवक्तव्यता स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हैं। प्रत: इन पर और निरपेक्ष प्रवक्तव्यता में जैन दृष्टि सापेक्ष विस्तृत विचार अपेक्षित नहीं है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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