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है, संवेदनशील है, वह उतना ही अधिक समय की प्राय प्राप्त करेगा। इस प्रसंग में एक लोककथा बड़ी अर्थव्यंजक है । एक सेठ बड़ा समृद्धिशाली था | भरा-पूरा परिवार था । पर अचानक उसकी पत्नी का देहान्त हो गया । अब सेठ के सामने समस्या आयी कि वह घर की मालकिन किसे बनावे, किसे तिजोरी की चाबियां सौपे ? समस्या के समाधान के लिए उसने अपनी चारों पुत्र वधुनों की परीक्षा लेनी चाही । पुत्रवधुओं को पास बुलवा कर उसने कहा- मैं चार वर्ष के लिए बाहर जा रहा हूं। ये पाँच-पांच चावल के दाने तुमको सौंप रहा हूं। जब वापस आने पर मांग करू' तब मुझे लौटा देना । यह कहकर सेठ चलता
बना ।
सबसे बड़ बही ने सोचा -- सेठ की बुद्धि सठिया गयी है। पांच चावल के दानों की क्या कमी ? जब सेठजी आयेंगे कोठार से लाकर दे दूंगी और उसने पांचों दाने फेंक दिये। दूसरी बहू ने सोचा-सेटजी अनुभवी हैं। शायद, ये चावल अभिमन्त्रित हों । इनसे कुछ लाभ पहुंच सकता है । यह सोचकर वह उन्हें चबा गयी। तीसरी बहू ने सोचा-न जाने इन चावलों के पीछे क्या रहस्य है ? इन्हें संभालकर रखना चाहिये । पता नहीं कब ये स्वर्ण या रत्नों में बदल जांय श्रौर उसने सन्दूक में उन्हें सुरक्षित रख दिया । चौथी बहू ने सोचा-सेठजी चार वर्ष बाद लौटेंगे, तब तक के लिए क्यों न इनका संवर्द्धन किया जाय ? उसने पांचों दानें अपने मकान से लगी खाली जमीन में डाल दिये । अनुकूल जलवायु पाकर वे अंकुरित हो उठे और समय पाकर वे पक गये और पांच के पांच सौ हो गये । उसने फिर उन पांच सौ दानों को बो
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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दिया। अब वे और अधिक हो गये । इस प्रकार वह उन दानों को बोती रही और वे बढ़ते रहे ।
जब चार वर्ष बाद सेठजी लौटे और उन्होंने अपने दिये हुए चावल के दाने मांगे तो दो बहुत्रों नेतो कोठार से लाकर और तीसरी बहू ने सुरक्षित रखे हुए वे दानें लाकर दे दिये पर चौथी बहू ने कहा कि वे दाने पांच नहीं रहे वरन् फलित होकर कई बोरियों में भरे हैं । सेठजी उसकी समयज्ञता, जागरूकता और विवेकशीलता पर बड़े प्रसन्न हुए तथा उसे घर की मालकिन बनाकर, तिजोरी की चाबियां सौंप दी ।
सच है, जो समय की इस उर्वरता को पहचान पाता है, वही अपने जीवन को सही माने में सफल और समृद्ध वना पाता है । समय की धारा के साथ जो तैरता है, वह न केवल अपना मंगल करता है बल्कि लोक मंगल का क्षेत्र भी विस्तृत करता जाता है । समय जितना सौन्दर्यमय है। उतना ही भयंकर भी । यह कालबली किसी को भी नहीं छोड़ता । शास्त्रों में इसे 'सर्प' से उपमित किया गया है । सर्प की तरह यह भागता है, फुत्कार करता है पर जो इसकी गति को पकड़ लेता है, वह इसकी कटुता को कला में बदल देता है । जो काल की वर्तना में रमण करता है, वह युग प्रवर्तन करता है, नये मूल्यों का निर्माण करता है और काल के कालकूट को पी जाता है । पर जो इसके साथ संक्रमण नहीं कर पाता, क्षण मात्र का भी प्रमाद कर बैठता है तब काल उसे पी जाता है । ऐसा समझकर वर्तमान में वर्तना करने की, पल को प्रज्ञा बनाने की कला सीखने का निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये, क्योंकि यही क्षण "तथागत' की भूमिका और भविष्य का जनक है ।
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