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का किला नाम था। यह विचार इस कृति के संक्षेप में यह कृति मुनिसुव्रत के अतिरिक्त प्राप्ति परिवेश को सहज ही स्पष्ट कर देता है। तीन अन्य तीर्थङ्करों जिनमें एक नेमिनाथ तथा
दो अन्य, के अलावा जीवन्तस्वामी या इन्द्र, यक्षप्रतिमा के अभिलेख का संवत् 1063 का यक्षी, सरस्वती प्रादि के समुपस्थिति के साथ ही 1006 ई० पड़ता है जिस समय दिल्ली एवं तत्कालीन लोक-संस्कृति को उन्मुख करने वाली राजस्थान पर चौहान शासनकाल था। इस प्रकार वस्त्राभूषण, केशकलाप, चेहरों को भावभंगिमा, से प्रस्तुत चौहानकालीन कलाकृति न निर्मम यथा, मुद्राओं, उत्कीर्ण प्रभिलेख प्रादि से सुसम्पन्न काल के प्रभाव को विफल करने में सफल हुई होकर एक मनोज्ञ कला रत्न सहज ही सिद्ध हो अपितु मूर्ति भजंकों से भी सुरक्षित रही जो कम जाती है । ऐसी प्रद्वितीय रचना को 'एक विचित्र अचरज की बात नहीं हैं। अब तो यह राज्य जिन-विम्ब" से सम्बोधित करना क्या उचित न संग्रहालय लखनऊ की अक्षय निधि है। होगा?
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यदि व को च मान लें तो। इस सूचना हेतु मैं अपने पूज्य गुरुवयं डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन का कृतज्ञ हूं। सुधी पाठकों से निवेदन है कि यदि पहचान कर सूचित करें तो अनुगृहीत होऊंगा। इस सुझाव के लिए मैं अपने परम मित्र डॉ० व्रजेन्द्रनाथ शर्मा, कीपर, नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली का अति प्राभारी हूँ।
अहिंसा
नहीं है हिंसा का नकारात्मक बोध अहिंसा एक मौलिक शोध चिन्त्य है जिसमें दृष्टि से परे दर्शन
जीवन से परे प्रात्मा जिसकी मीमांसा अनेकान्त भूमिका सर्वोदय
-श्री सेठिया
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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