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चन्द्रकुमार--(तोड़कर देते हुये) ले मैंने ही तोड़ दिया। सलिल ! रजनीगंधा का फूल देखा तूने ? सलिला-छिः यह भी कोई फूल है। न सुन्दर न सुगन्ध । चन्द्रकुमार-ये रात को महकता है सलिला । रात को माना मेरे घर । प्रायगी?
[इतने में चन्द्रकुमार जोर से चीख पड़ता है एवं सांप सांप कहते हुये प्रांगण में गिर कर मूच्छित हो जाता है । सलिला भी सांप को देखकर भयभीत हो चीखती है। वसुमती घबराकर वहां मा जाती है।) वसुमती--(चन्द्रकुमार को उठाते हुये) क्या हो गया बिटिया चन्द्र को ? सलिला--सांप था मोसी ! वसमती--सांप ! तूने देखा है ? सलिला- हां मौसी ! काला काला था । (हाथ फैलाकर बतलाते हुये) इतना बड़ा ! वसमती-सांप ने काट खाया मेरे चन्द्र को ?
___(सेवक सुखलाल भी पा जाता है ।) सुखलाल-क्या हो गया स्वामिनी बालक को ? वसुमती-सुखलाल ! (व्यथित स्वर में) जा दौड मन्दिर जी, स्वामी से कहना चन्द्रकुमार को नाम
ने डस लिया है। सुखलाल - सांप ने ! हाय । मैं अभी बुलाकर लाता हूं स्वामिनी ! (चला जाता है।)
(श्रेष्ठी सुदर्शन, बलदेव आदि पड़ोसी पा जाते हैं।) सलिला--(क्यारी की ओर संकेत कर) मौसी ! वो देखो, गुलाब के समीप बैठा है नाग । सदर्शन--(देखकर) उफ ! काला भुजंग रखा है । प्रत्यन्त विषैला नाग है। बलदेव-किसी मंत्रवादी को बुलाकर दिखलाना चाहिये । बन्धु धनंजय कहां है भाभीजी ! वसमती-अभी मन्दिर से नहीं लौटे। सुखलाल बुलाने गया है । (पैर से खून बहता हुआ देखकर)
पैर में काटा है नाग ने । (तत्काल साड़ी फाड़कर कटे हुये स्थान के ऊपर बांध देती है ।) सुदर्शन-श्रेष्ठी शीघ्र प्रा जाते तो प्रयत्न करते; वरन् विष का प्रभाव तीव्र गति से बढ़ता चला
जायमा । वसुमती-(मनहोनी अाशंका से भयभीत हो) हा मेरा चन्द्र ! बचालो कोई मेरे लाल को बचालो ।
(जन समूह एकत्रित होता चला जाता है ।। सुखनाल-(लौटकर दुख भरे स्वर में) जाने आज स्वामी को क्या हो गया है स्वामिनी ! वे मेरी
सुनते ही नहीं हैं। वसुमती--तुमने कहा नहीं कि बालक को नाग डस गया ? सुखलाल-कहा स्वामिनी; बार बार कहा, पर वे हैं कि पूजन ही कर रहे हैं। बलदेव-कदाचित् सुखलाल की बात समझ में न आई हो। हम बुलाकर लाते हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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