Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 278
________________ पलट कर देखा फिर चिल्लाया- 'पीछे टेक लगानी जल्दी ।' सुनते ही, मेरे बाजूवाला गाड़ी के फाटक को एक झटके से खोलकर तत्परता से बाहर कूद गया । उसके बाद शायद मैं या कण्डक्टर बाहर कूदता कि गाड़ी संतुलन खो बैठी मोर धड़ाम खटाखट्ट धड़ाम की आवाज से फाटक के बल वह एक खंडहर में गिर गई। श्रागे महिलायें चिल्लाई, जैसे एक साथ सैकड़ों श्रौरतें भयभीत होकर चीत्कार कर रही । बच्चों का कोहराम अलग सुनाई दे रहा था। सभी यात्री कुछ न कुछ चिल्ला रहे थे। कोई भगवान का नाम ले रहा था । कुछ चिल्ला रहे थे। मेरे पैरों में काफी चोट भा गई थी। कोई खिड़की तोड़कर बाहर निकला तो किसी ने ड्राइवर के सामने का कांच तोड़कर रास्ता बनाया । यात्री बाहर था गये थे। जिन्हें सा चोट थी वे बच्चों और महिलाओं को निकालने लगे। पांच मिनिट में सब बाहर श्रा चुके थे । कोलाहल शांत होने लगा । गाड़ी गड्ड में श्राराम सा कर रही थी। फर्स्ट एड का बाक्स अब काम आया, कण्डक्टर बच्चों को टिचर लगा रहा था । डर श्रौर दहशत कम होने पर सबने एक दूसरों को देखा । किसी को गम्भीर चोट न प्रा पाई थी । साधारण नोंच खरोच ही थी। फिर भी लोग अन्धकार में घबड़ा रहे थे । बच्चे पानी मांगने लगे । म मूर्छा की स्थिति में हम सब एक वृक्ष के समीप पड़े रहे । कुछ लोग भाग्य पर श्रीर कुछ ड्राइवर पर दोष प्रारोपित करने लगे। तभी पीछे से एक अन्य बस प्राती दिखी। हमें लगा हनुमानजी संजीवनी लेकर श्रा रहे हैं। हमारी बेचनी कम होने लगी । ड्राइवर और कण्डक्टर ने एक साथ हाथ उठाये । बस थम गई। इस बस के लोगों को घटना समझते देर न लगी । हम लोगों का सामान पहिचान पहिचान कर इस बस पर महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International रखा जाने लगा । टहलते टटलते सभी जन बस में बैठने लगे । कण्डक्टर ने आवाज लगाई - "सब लोग हैं न भाई.... अपने अपने बाजूवालों को देख लेना ।" " बाजू वालों को" । श्रावाज सुनी तो मुझे अपने बाजू वाले की याद भाई । मैं बिना कुछ सोचे एकदम जोर से चिल्लाया- मेरा बाजूवाला नहीं है भाई। मुझे एक घबराहट हुई। मुझे लगा मैं अपने किसी सगे-सम्बन्धी को बाहर छोड़ आया हूँ। मैं बस से उतर कर गड्ड में पड़ी बस की श्रीर भागा । एक साथ 2-3 टार्चे मेरी श्रोर ज्योतिशिखा बिखेरने लगीं । कुछ लोग मेरे पीछे हो श्राये । मैंने ड्राइवर के सामने वाले फूटे कांच में से झाँक कर देखा । वह भीतर नहीं था। किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में होते हुए भी मैं गाड़ी के उस तरफ पहुंचा तो मेरे साथ कई स्वर चिल्लाये"वह दबा पड़ा है ।" च च च... मैं उस पर झुक गया। इसकी छाती पर बस का वजन था । छाती के नीचे का भाग फाटक की भड़ास में सुरक्षित था। उसके सिर से खून निकल रहा था। वह बेसुध था । मैं तड़प कर उसके सिर पर हाथ फेरने लगा। लोगों ने जोर देकर बस की बाडी को कुछ ऊपर को हुमसाया और इसी बीच दो लोगों ने उसे बाहर खींच लिया। उसकी प्रांखें खुली थीं किन्तु चेतना जा चुकी थी । मैं लुटा सा रह गया । मेरे प्रसू उस सूखी काली रात में श्राता भरने लगे । वह मेरी मोर देख रहा था। मुझे लगा वह अपना वाक्य दोहरा रहा है- "दो दिन रुका, प्राज जा रहा हूं ।" शायद यही उसका शाश्वत परिचय था । श्रौर यही उसकी "श्रिय यात्रा" थी । श्याम विभावरी में विभीतिहीन शांति निर्मित हो गई । उसकी यात्रा पूर्ण हो गई थी, हम रास्ते में ही पड़े थे । For Private & Personal Use Only 3-11 www.jainelibrary.org

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