Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 269
________________ ( जन समूह में से स्वर उभर कर भा रहे हैं ।) १ला स्वर - शीघ्र उपचार करें मां श्री । २रा स्वर - शीघ्रता न की गई तो हाथ धर कर बालक खो बैठेगी । वसुमती - ( घबराकर ) नहीं, नहीं ऐसा न कहो, मेरा एक ही तो पुत्र है । ३रा स्वर - छिः छिः कौन ऐसा दुष्ट है जो ऐसा सोचेगा। भगवान इसकी रक्षा करे । सुदर्शन - वंश का दीपक है बन्धु ! माता-पिता की इसी बालक पर समस्त प्राशायें केन्द्रित हैं । १ला स्वर- क्यों न हों, कुल तो इसी से जगमगायेगा | २रा स्वर - देखो तो भगवान मरे को ही मारता है । ४था स्वर - अरे भैया ! अरे भगवान क्या मारेगा ? जो जैसा करता है, वैसा ही भोगता है | भगवान तो वीतराग निस्पृही हैं । उन्हें अपने बीच घसीटकर क्यों अपना मुख मलिन करते हो ? २रा स्वर-धर्म की बातें दूसरों के संकट में बघारने के लिए हैं। अपने ऊपर विपति भावे तो भगवान को पानी पी पी कर कोसेंगे । ४था स्वर- कोसेंगे तो अपना ही अनर्थं करेंगे। भगवान क्या बिगाड़ लेंगे। सूर्य पर धूलि फेंकने से वह सूर्य तक तो पहुंचने से रही, अपने ऊपर गिर कर अपने को ही मलिन करेगी । बलदेव - ( लौटकर ) सुखलाल का कथन यथार्थ है बन्धु ! श्रेष्ठी सुनकर भी अनसुना कर रहे हैं । सुदर्शन - (प्राश्चर्ययुक्त हो) क्या कर रहे हो ? क्या उन्हें अपने पुत्र का जीवन प्रिय नहीं ? बलदेव - ये तो वे ही जानें । परन्तु मैं सत्य कह रहा हूं। मैंने उच्च स्वर से उन्हें सम्बोधित किया; किन्तु उन्होंने मेरी श्रोर मुख भी नहीं किया । न ही कुछ ऐसा भाव प्रदर्शित किया कि मेरी बात सुन ली हो । सुदर्शन - तो क्या पूजन ही करते रहे ? बलदेव - हां बंधु ! मैं स्वयं विस्मित हूं कि कोई इतनी भयंकर दुर्घटना सुनकर कैसे शांत रह सकता है। ४था स्वर - बात तो यही है। पूजन में लीन हो तो वे कैसे सुन सकते हैं ? एक बार में मन एक नोर ही लग सकता है । बलदेव -- कितनी ही तल्लीनता हो, पर ऐसा नहीं होता । पूजन फिर भी की जा सकती है। भगवान मंदिर से भाग थोड़े ही रहे हैं । ४था स्वर -- पर पूजन के भाव, उसका श्रानन्द क्या स्थिर रह पायेंगे ? वसुमती -- जीवन तो हो गया पूजन करते-करते और आगे भी करेंगे। पर बालक हाथ से निकल गया तो वह कहाँ मिलेगा । सुदर्शन -- प्राश्चर्य है कि जिसका एक मात्र पुत्र काल के गाल में हो, उसका मन पूजा में कैसे लग रहा होगा ? वसुमती -- ( व्यथित हो) कैसे कठोर हो गये श्रेष्ठी ! 3-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www.jainelibrary.org

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