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तत्पश्चात् मुकुट, केयूर, अधोवस्त्रादि से शासनदेवी तथा सरस्वती इन सभी को वाहनपरिवेष्टिटत कायोत्सर्ग मुद्रा में कमल पर दोनों विहीन दर्शाया है । मोर एक २ दिव्य पुरुष खड़े हैं । इन पर त्रिछत्र या
जहां तक सरस्वती की वाहन हीनता का कैवल्य वृक्ष नहीं बना है । ये कौन हैं इन्हें पहचानना ।
__ संबंध है तो इसी संग्रहालय में (जे-24) सरस्वती कठिन प्रतीत होता है। कहीं जीवन्तस्वामी या इन्द्र
जो कुषाण कालीन हैं उस पर भी वाहन नहीं है। तो नहीं है ? इन्हीं के नीचे दोनों प्रोर एक-एक
किन्तु जैन प्रतिभाशास्त्रीय मत का उल्लघन कायोत्सर्ग मुद्रा में कमल पर खड़े तीर्थङ्कर हैं। इनके
कलाकार का अभिप्राय नहीं प्रतीत होता अपितु श्रीवत्स बना है, ऊपर त्रिछत्र एवं कैवल्यवृक्ष है ।
ऐसा लगता है कि शासन देवता और देवियों को अधोवस्त्र को भी दर्शाया है। इस प्रकार से यह
भक्तों के अधिक समीप लाने का प्रयास किया है प्रतिमा श्वेताम्बर मतानुसार बनायी गई प्रतीत होती
क्योकि इन्हीं से भक्त अपनी सीधे प्रार्थना कर है । इन तीर्थङ्कर प्रतिमानों के मुखमंडल से तप की
सकता है। कई मुख भी शायद इसी कारण से तेजस्विता प्रस्फुरित होती है।
नहीं पाते है। यद्यपि जैन प्रतिमा शास्त्रीय ग्रन्थों मलनायक के परिकर के बॉयी प्रोर उपरोक्त में यहां बनी कृतियों के अनुसार वर्णन नहीं पाते कैवली प्रतिमा के नीचे सिंहवर अद्ध पर्यकासीन हैं। यह भी सम्भव है कि अन्य मतों के प्रभाव के द्विभुजी अम्बिका का अकन है जिनकी बायी तरफ कारण इसी तरह से इन्हें बनाया हो। गोद में बालक है तथा दॉयी हाथ से पाश पकड़े हैं। इनके पास चवरधारिणी बनी है जो ऊपर
प्रस्तु, यहां पर रूपायित प्राकृतियों के से खंडित है। किन्तु हाथ में चँवर स्पष्ट है।
अलकरण, केश विन्यास भाव, मुद्रादि पर विचार
करने पर यह कलाकृति चौहान युगीन प्रतीत दांयी तरफ मोढे पर द्विभुजी वरुण शासन होती है। क्योकि अन्य स्थलों से उपलब्ध इसी देवता हैं जिनके एक हाथ में नेवला तथा की शैली से परिपूर्ण प्रतिमाए चौहान राज दूसरे में निधिपात्र या बड़ा नीबू बना है। दांयी कुलीन कला से सम्बद्ध कलाविदों द्वारा ठहरायी मोर ही त्रिभंगमुद्रा में खड़ी, वस्त्राभूषणों से गई है। समलंकृत द्विभुजी एक कर में पुस्तक लिए तथा दूसरे में वस्त्र या पाश ? जैसी वस्तु लिए देवी का जैसा कि ऊपर निवेदित हो चुका है कि पालेखन है।
उपरोक्त निदर्शन जमुना के तट से प्राप्त हमा है।
इसी के निकट प्राज भी ऐतिहासिक किला खड़ा देवी के हाथ में पुस्तक का होना इस बात का
है। इस विषय पर मैंने लब्ध प्रतिष्ठित जैन संस्कृति स्पष्ट प्रमाण है कि यह ज्ञान की देवी शारदा
के मूर्धन्य विद्वान डॉ. ज्योतिप्रसादजी जैन का ही प्रकन है | इन्हें श्रु तदेवी माना जा सकता
से फोन पर चर्चा की। उन्होंने सदैव की भांति है । ऐसा लगता है कि भगवान के श्रीमुख से निसृत
सरलता से मेरा पथ पालोकित कर दिया। अमृतवाणी के प्रसरण हेतु सरस्वती देवी को यहां
उनका मत है कि आगरे का वर्तमान किला ही पर रूपायित किया गया है ।
शीतलनाथ जी का प्राचीन मंदिर था किन्तु __इस प्रकार से यहां पर इतना स्पष्ट हो जाता मुस्लिमकाल में उसे ध्वस्त कर प्राज का आगरे है । पता नहीं कलाकर ने क्यों शासन देवता व का किला बना है। इसका उस समय "बादलगढ़
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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