Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 238
________________ है कि जितना हिन्दू धर्म प्राचीन है शायद उतना ही जैन धर्म प्राचीन है । ऋग्वेद का उपयुक्त मन्त्र इस प्रकार हैश्रन् विष सायकानि धन्वार्ह निष्कं यजत विश्वरूपम् । महं निदं दयसे विश्वम्बं न वा श्री जी प्रो रुद्र त्वदन्यदस्ति || - ऋग्वेद 214133110 'प्रतिष्ठातिलक के कर्त्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र ऋग्वेद के उपर्युक्त मन्त्र से प्रत्यन्त प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने उपयुक्त मन्त्र के प्रायः समस्त पदों को ग्रहण करके अन्त के गुणों का निम्न प्रकार विस्तार से वर्णन किया है मन् विभर्षि मोहारिविध्वंसिनयसायकान् । अनेकान्तधोति निर्बाध प्रमाणोदारधनुः च ।। ततस्त्वमेव देवासि युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । दृष्टेष्टबाधितेष्टाः स्युः सर्वथैकान्तवादिनः ॥ श्रहं निष्कमिवात्मानं बहिरन्तर्म लक्षयम् । विश्वरूपं च विश्वार्थे वेदितं लभसे सदा ॥ अर्हन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम् । नृसुरासुरसंघातं मोक्षमार्गोपदेशनात् ॥ ब्रह्मासुरजी वान्यो देश रुद्रस्त्वदस्ति 132 हे अन् श्राप ! मोह- शत्रु को नष्ट करने वाले 'नय' रूपी बारणों को धारण करते हो तथा अनेकान्त को प्रकाशित करने वाले निर्बाध प्रमाण रूप विशाल धनुष के धारक हो । मुक्ति एवं शास्त्र से श्रविरुद्ध वचन होने के कारण आप ही हमारे श्राराध्य देव हो । सर्वथा एकान्तवादी हमारे देवता नहीं हो सकते क्योंकि उनका उपदेश प्रत्यक्ष एवं अनुमान से बाधित है । हे श्राप ! ऐसी श्रात्मा को धारण करते हो जो निष्कछि अर्थात् श्राभूषण या रत्न की तरह प्रकाशमान है बाह्य और अन्तः मल से रहित है और जो समस्त विश्व के पदार्थों को एक साथ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International निरन्तर जानता है । हे प्रर्हन्, प्राप! मनुष्य, सुर एवं असुर सभी को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हो, अतः विम्भ पर दया भाव से परिपूर्ण हो श्राप से अन्य कोई ब्रह्म अथवा असुर को जीतने वाला बलवान देवता नहीं है ।' ऋग्वेद के अन्य स्थानों पर भी श्रहन् शब्द का प्रयोग मिलता है अन् देवान् यक्षि मानुषत् पूर्वो श्रद्य । 33 तो ये सुदानवो नरो असामि शव सः । '34 श्रहन्ता चित्रोदधे शेव देवा वर्तने । '35 ऋग्वेद के उपर्युक्त उद्धरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेदकाल में जैन धर्मावलम्बी अन्त की उपासना करते थे । वराहमिहिरसंहिता, 36 योगवासिष्ठ, 37 वायुश्रीमद्भागवत 39 पद्मपुराण, 40 facu पुराण, 38 पुराण 41 स्कन्दपुराण, 42 मत्स्यपुराण 44 और देवीभागवत मत का उल्लेख मिलता है । शिवपुराण 18 में भी ग्रहन विष्णु पुराण अनुसार लोग श्रात् धर्मको मानने वाले थे । उनको मायामोह नामक किसी व्यक्ति विशेष ने आर्हत धर्म में दीक्षित किया था । 46 वे सामवेद, यजुर्वेद श्रौर ऋग्वेद में श्रद्धा नहीं रखते थे । 47 वे यज्ञ श्रौर पशु बलि में भी विश्वास नहीं रखते थे । 18 अहिंसा धर्म में उनका पूर्ण विश्वास था ।49 वे श्राद्ध और कर्मकाण्ड का विरोध करते थे | 50 मायामोह ने श्रनेकान्तवाद का भी निरूपण किया था। 51 ऋग्वेद में असुरों को वैदिक प्रार्यों का शत्रु कहा है 152 के बौद्ध वाङ् मय में अरहन्त शब्द महात्मा बुद्ध लिए प्रयुक्त प्रयोग है । अरहन्त के जो गुण पालि साहित्य में कहे गये हैं वे बहुत प्रशों में जैन अरहन्त के गुणों से समानता रखते हैं । पालि भाषा के बौद्ध प्रागम (त्रिपिटक), 'धम्मपद' में 'अरहन्त गो' नामक एक प्रकररण है इसमें दश गाथानों में For Private & Personal Use Only 2 71 www.jainelibrary.org

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