Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 240
________________ कारण केसरी कहलाता है वैसे ही भगवान ऋषभ केशी, केसरी और केशरियानाथ के नाम से विश्रुत हैं । ऋग्वेद में भगवान ऋषभनाथ की स्तुति केशी के रूप में की गई है 162 वातरशना प्रकरण में प्रस्तुत उल्लेख आया है, जिससे स्पष्ट है कि केशी ऋषभदेव ही थे । अन्यत्र ऋग्वेद में hit प्रोर वृषभ का एक साथ उल्लेख भी प्राप्त होता है । मुद्गल ऋषि की गाए (इन्द्रियां ) चुराई जा रही थीं। उस समय केशी के सारथी ऋषभ के वचन से वे अपने स्थान पर लौट पायीं । प्रर्थात् ऋषभ के उपदेश से वे इन्द्रियां श्रन्तमुखी हो गयी 63 ॠग्वेद में भगवान ऋषभ का उल्लेख अनेक बार हुआ है 164 वैदिक आर्यों के भागमन के पूर्व भारत वर्ष में सभ्य घोर असभ्य ये दो जातियां थीं । प्रसुर नाग और द्रविड ये नगरों में रहने के कारण सभ्य जातियां कहलाती थीं और दास प्रादि जंगलों में निवास करने के कारण असभ्य जातियां कहलाती थीं । सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से प्रसुर अत्यधिक उन्नत थे । प्रात्मविद्या के भी जानकार थे 185 शक्तिशाली होने के कारण वैदिक पायें को उनसे प्रत्यधिक क्षति उठानी पडी । वैदिक वाङ्मय में देव-दानवों का जो युद्ध वर्णन प्राया है, हमारी दृष्टि से यह युद्ध असुर और वैदिक श्रार्यों का युद्ध है। वैदिक आर्यों के श्रागमन के साथ ही प्रसुरों के साथ जो युद्ध छिड़ा वह कुछ ही दिनों में समाप्त नहीं हो गया, अपितु वह संघर्ष 300 वर्ष तक चलता रहा 66 प्रार्यों का इन्द्र पहले बहुत शक्ति सम्पन्न नहीं था 167 एतदर्थ प्रारम्भ में श्रायं लोग पराजित होते रहे थे। 68 महाभारत के अनुसार असुर राजानों की एक लम्बी परम्परा रही है । 69 और वे सभी राजागरण व्रत परायण, बहुश्रुत लोकेश्वर थे | 70 पद्मपुराण के अनुसार असुर लोग हार स्वीकार करने के पश्चात् नर्मदा के तट पर निवास करने लगे 171 1. Ancient India (An Ancient History of India Part 1 ) उपयुक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि श्रमण संस्कृति भारत की एक महान संस्कृति और सभ्यता है जो प्राक् ऐतिहासिक काल से ही भारत के विविध प्रचलों में फलती धौर फूलती रही है। जैन संस्कृति, जिसे श्रमण संस्कृति कहा गया है, वैदिक प्रौर बौद्ध संस्कृति से पूर्व को संस्कृति है, भारत की श्रादि संस्कृति है । By Majumdar, Roy Chudhary and K.C. Datta, p. 23. 2. The Religion of Ahinsa, By prof. A. Chakaravarti p. 17. 3. Mohan-Jo-dro and the Indus Civilization (1931) vol. I p.p. 93-95. 4. Ancient India ( An Ancient History of India, Part I ) 5. पं. कैलाशचन्द शास्त्री का लेख " श्रमण परम्परा की प्राचीनता" अनेकान्त वर्ष 28 कि. 1 go 113-114 1 7. श्रत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालम् संस्कृताः । सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्थ विगर्हिताः ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International 6. व्रात्यः संस्कारवर्जितः । व्रते साधुः कालो व्रात्यः । तत्र भवो व्रात्यः प्रायश्चित्तार्हः संस्कारोऽत्र उपनयनं तेन वर्जितः । -मभिधान चिन्तामरिणकोष 3/518 - For Private & Personal Use Only -- मनुस्मृति 1 / 518 2-73 www.jainelibrary.org

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