Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 239
________________ प्ररहन्त का वर्णन किया है । धम्मपद के अनुसार तैत्तिरीयारण्यक में भगवान् ऋषभदेव के अरहन्त वह है जिसने अपनी जीवन यात्रा समाप्त शिष्यों को वातरशन ऋषि और उर्ध्वमंथी कहा करली है, जो शोक रहित है, जो संसार से मुक्त है है।56 जिसने सब प्रकार के परिग्रह छोड़ दिये हैं और जो कष्ट रहित हैं वातरशन मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे क्योंकि वैदिक परम्परा में संन्यास और मुनि पद __ गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सब्बधि । को पहले स्थान नहीं था।' सब्बगन्थ पहीनस्स परिलाहों न विज्जति ।।" -धम्मपद प्ररहन्त बग्गो 921 श्रमरण श्रमण शब्द का उल्लेख तैत्तिरीयारण्यक और वातरशना श्रीमद् भगवान के साथ ही वृहदारण्यक उपनिषद श्रीमद्भागवत पुराण में लिखा है स्वयं रामायण58 में भी मिलता है । इण्डो ग्रीक और भगवान विष्णु महाराजा नाभि को प्रिय करने के इण्डो सीथियन के समय भी जैन-धर्म श्रमण धर्म लिए उनके रनिवास में महागनी मरुदेवी के गर्भ के नाम से प्रचलित था। मंगस्थनीज ने अपनी में पाए । उन्होंने वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म भारत यात्रा के समय दो प्रकार के मुख्य दार्शनिकों को प्रकट करने की इच्छा से यह अवतार ग्रहण का उल्लेख किया है । श्रमण और ब्राह्मण उस युग किया 153 के मुख्य दार्शनिक थे ।59 उस समय उन श्रमणों का ऋग्वेद की ऋचाए इस प्रकार हैं बहुत प्रादर होता था। काल ब्रुक ने जैन सम्प्रदाय मुनयो वातरशना: पिशंगा वसते मला । पर विचार करते हुए मैगस्थनीज द्वारा उल्लिखित वातस्यानु धाजिम् यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ श्रमण सम्बन्धी अनुच्छेद को उद्धृत करतेहुए लिखा उन्मदिता मौने यन वातां प्रा तस्थिमा वयम् । है कि श्रमण वन में रहते थे सभी प्रकार के व्यसनों शरीरेदस्मांक यूयं भर्तासो अभि पश्यथ ।। से अलग थे। राजा लोग उनको बहुत मानते थे और देवता की भांति उनकी पूजा मोर स्तुति करते अर्थात् प्रतीन्द्रियार्थदर्शी वात रशना मुनि थे 160 मल धारण करते है जिससे पिंगलवर्ण वाले दिखाई देते हैं। जब वायु की गति को प्राणोसना द्वारा केशी धारण कर लेते हैं अर्थात् रोक देते हैं तब वे अपने जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वर्णनानुसार भगवान सप की महिमा से दीप्तिमान होकर देवता स्वरूप ऋषभदेव जब श्रमण बने तो उन्होंने चार मुष्टि को प्राप्त हो जाते हैं । सर्वत्र लौकिक व्यवहार को केशों का लोच किया था । सामान्यतः पांच-मुष्टि छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं । केश लोंच की परम्परा है भगवान केशों का लोंच "मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु में स्थित हो कर रहे थे। दोनों भागों का केश लोंच करना गये हैं। मयों ! तुम हमारा शरीर मात्र देखते अवशेष था। उस समय प्रथम देवलोक के इन्द्र हो।" रामायण की टीका में जिन वातवसन मुनियों शकेन्द्र ने भगवान से मिवेदन किया इतनी सुन्दर का उल्लेख किया गया है वे ऋग्वेद में वरिणत वात- केशराशि को रहने दें। भगवान ने इन्द्र की रशन मुनि ही ज्ञात होते हैं । उनका वर्णन उक्त प्रार्थना से उसको उसी प्रकार रहने दिया । यही वर्णन से मेल भी खाता हैं।54 केशी मुनि भी कारण है कि केश रखने के कारण उनका एक वातरशन की श्रेणी के ही थे । नाम केशरियाजी हुप्रा । जैसे सिंह अपने केशों के 2-72 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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