________________
पंच मुक्तक
.पं० प्रेमचन्द्र "दिवाकर", सांगर
पानी की सतह भू से ऊपर नहीं बढती । कि काठ की हंडी चूल्हे 4 नहीं चढ़ती ।। फिर भी यार दोस्तो जो सीमा से उफनता हैस्वयं मिटता आबरू हर जगह है घटती ॥1॥
भारत की तुम शान न पूछो, दांत गिने शेरों के, तन से निकलीं आँखें चाहे. लक्ष्य सधे तीरों के । सत्रह बार छमा शत्रु को, फिर भी गर्व न करते,
ऐसे वीर इसी वसुधा के अन्तिम दम तक लड़ते ।।2।। जो सहयोग करते हैं उन्हें सहयोग मिलता है, जो प्रादर और का करते उन्हें प्रादर भी मिलता है। जो कर्तव्य करते हैं उन्हें अधिकार मिलता है, जो सेवा "प्रेम" से करते उन्हें मेवा भी मिलता है ।।3।।
जिसके ज्ञान नहीं वह जानवर है. जिसके प्रेम नहीं वह पत्थर है । रुचि संगीत न हो जिसमें वह सहृदय नहीं,
स्वाभिमान की चाह न हो वह कायर है ।।4।। जमाने को क्या कहें, कि गरजते तो हैं पर बरसते नहीं, भाषणों की किताबों पर किताबें किन्तु कर दिखाया कुछ नहीं। उल्लू अगर सीधा न हुआ तो बगलें छकने लगती हैं, "प्रेम" से चने के छिलके फटकते तो हैं पर निकलते नहीं ॥5॥
1-16
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org