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किया जाये। श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति "श्रम्" अनुयोग द्वार सूत्र में “समण" शब्द की विस्तृत धातु से है जिसका अर्थ है स्वतः परिश्रम करना, व्याख्या की गई है। कथन हैचेष्टा करना, प्रयत्न करना । "श्रम्" धातु में जब "तो समणों जइ सुमणो, भावेण य जइ ण 'ध' प्रत्यय लगता है तब "श्रम्' शब्द की सिद्धि
पावमणो" होती है। 'श्रम्' धातु के साथ "युच्' प्रत्यय लगने
___ सयणे प्र जणे म समो, समो प्रमाणावपर विशेषण श्रमण बनता है जिसका अर्थ है
__ मारणेसु" अनु. 132 परिश्रमी, मेहनती, सन्यासी प्रादि (विशेष द्रष्ट व्य
(जो मन से सु-मन (निर्मल मनवाला) है संस्कृत हिन्दी कोश-वामन शिवराम प्राप्टे पृ०
2° संकल्प मात्र से भी जो कभी पापोन्सुख नहीं होता, 1135) इस व्याकरण सम्मत अथ के कारण श्रमण
स्वजन तथा परजन में, मान एवं अपमान में सदा संस्कृति परिश्रमी व्यक्ति की संस्कृति की पर्याय
सम रहता है वही “समण" होता है। सिद्ध होती है। यदि इसी अर्थवत्ता के प्राधार पर
महावीर और श्रमरण शब्द : "श्रमण संस्कृति" का मूल्यांकन किया जाये तो
उपरिविवेचन से स्पष्ट है कि अन्य तीर्थ करों इस संस्कृति को पूर्ण-रूपेण भौतिकवादी संस्कृति
की अपेक्षा भगवान महावीर के जीवन एवं कार्यहोना चाहिये था किन्तु यर्थाथता इससे परे है।।
कलापों में समता का स्थान सर्वोपरि था। उनके जैन ग्रन्थ और श्रमरण शब्द :
हृदय में स्वकल्याण की अपेक्षा पर कल्याण की श्रमण संस्कृति नैतिक प्राध्यात्मिक व्याख्या
भावना बिशेष बलवती थी। सभी जीवों के प्रति परस्सर करने वाली सस्कृति है। प्रत. श्रमण शब्द
उनकी दृष्टि कारुण्यमयी उदात्त थी। ऊंच-नीच का प्रयोग इस संस्कृति के संदर्भ में किस रूप में
छोटा-बड़ा किसी भी प्रकार का विभेदात्मक विचार प्रतिपादित किया गया है इसका अवलोकन जैन
उनके विशाल हदय को छ भी नहीं पाया था। ग्रन्थों में करना नितांत आवश्यक है। जैन ग्रन्थों
संसार के सभी प्राणियों को जन्म मरण के भवमें भगवान महावीर के लिये 'समरण" शब्द
चक्र से मुक्त कराने के लिये सतत उनका अन्तस्तल का प्रयोग किया गया है। "समणे भगवन
छटपटाता रहता था। जीवन में जब कभी किसी महावीरे" । भगवान् महावीर के लिये श्रमण शब्द
प्राणी को उनकी दयामयी दृष्टि की आवश्यकता विशिष्ट अर्थ एवं ध्वनि वाला है। उत्तराध्ययन में
पड़ी वे सदा उसके रक्षक रूप में प्रस्तुत रहे । "समयाए समरणो होइ"
चन्दनबाला की मुक्ति गाथा उनकी इसी उदात्तमयी का स्पष्ट उल्लेख है जिसकी ध्वनि है कि
भावना की ही प्रतीक है। समता के सिद्धान्त का परिपालन करने वाला ही
जैन ग्रन्थों में भगवान महावीर के लिये न यथार्थतः श्रमण पद का अधिकारी है। इसी मत की पुष्टि उत्तराध्ययन की चरिणका में भी की गई
केवल ''समण" शब्द का प्रयोग मिलता है अपितु है । कथन है--
"महासमण" भी प्राप्त है। जो कि भगवान्
महावीर की "सर्वजन हिताय" भावना का ही "समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स द्योतक माना जा सकता है। भगवान् अपने जीवन समणो" जिसका मन सर्वत्र समभाव से स्थित में अनेक झंझावातों से जूझते हुये कभी भी रहता है वही समण (श्रमण) है ।)
"समता" के सिद्धान्त से विचलित नहीं हो सके। __कालान्तर में "समण' शब्द अपने प्रतिपाद्य चण्डकौशिक सर्प की गाथा इसी महा समता" अर्थ से दूर न हो जाये सम्भवतः इसी कारण से की गाथा है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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