Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 215
________________ तक पहुंचने वाली भाषा का ही व्यवहार करें 124 तथा यदि कोई व्याकरण की दृष्टि से भाषा बोलने में स्खलित हो जाय तो उसका उपहास नहीं करना चाहिये 125 महावीर के इस प्रकार के विचार ही जन-भाषा के उत्थान में श्राधारभूमि रहे हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर महावीर की परम्परा में प्रत्येक युग और स्थान की जन भाषा को महत्व प्रदान किया गया है । महावीर के उपदेश की भाषा को दिव्यध्वनि कहा गया है 126 इस भाषा की यही दिव्यता है कि वह सभी प्राणियों तक सम्प्रेषित होती थी । श्राध्यात्मिक दृष्टि से वह अनक्षरात्मक थी तथा व्यावहारिक दृष्टि से अक्षरात्मक 127 उसमें श्रायंअनायं सभी भाषाओं के तत्व सम्मिलित थे 128 इसे सर्वभाषात्मक कहा गया है । 29 दिव्वध्वनि का यह स्वरूप इस बात का द्योतक है कि महावीर ने किसी ऐसी व्यापक जनभाषा में उपदेश दिये थे जिसमें विभिन्न बोलियां सम्मिलित थीं । उस समय इस प्रकार की भाषा मगध जनपद में प्रचलित थी । उसे जैन शास्त्रों में अर्धमागधी 30 और शौरसेनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। प्राचीन जैन श्रागम इन्हीं जन भाषात्रों में हैं । पालि, अर्धमागधी व शौरसेनी में बौद्ध एवं जैनधर्म के श्रागम उपलब्ध । इन भाषाओं को बुद्ध और महावीर के कार्य क्षेत्र में प्रचलित भाषाएं भी माना गया है। किन्तु उस समय वास्तव में जन साधारण में क्या ये भाषाएं बोली जाती थीं ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है । और यदि इनका प्रयोग जनता में होता था तो उसका स्वरूप क्या वही है, जो ग्रागम या त्रिपिटक की भाषाओं का है ? भाषाविदों ने इन जिज्ञासायों का समाधान खोजने का प्रयत्न किया है। किन्तु कोई स्पष्ट उत्तर हमारे सामने नहीं है। अतः यह मानकर चलना पड़ता है कि जब दो महापुरुषों ने जनसाधारण को उद्बोधित करने के लिए इन भाषाओं का प्रयोग किया तथा उस समय के 2-50 Jain Education International राजात्रों ने भी जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इन्हीं भाषाओं में अपनी राजाज्ञाएं प्रसारित कीं तो अवश्य ही इनका प्रयोग लोक में होता रहा होगा । साहित्य में प्राकर इन भाषाओं का कुछ परिष्कार हो गया होगा । महावीर की परम्परा के प्राचार्यों ने अर्थमागधी व शौरसेनी के अतिरिक्त काव्य और कथा के लिए महाराष्ट्री एवं पंशाची प्राकृत भाषाश्रों को भी अपनाया है। इससे पूर्व पश्चिम एवं दक्षिण भारत की लोकभाषाओं की समृद्धि में वे अपना योग दे सके है । महाराष्ट्री प्राकृत क्रमशः साहित्य की भाषा बनते रहने से रूढ़ होने लग गयी थी । तब लगभग ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रंश नामक जनभाषा साहित्य के लिए प्रयुक्त होने लगी । जैन प्राचार्यों ने अपभ्रंश भाषा को अपनी रचनाओं से बहुत प्रधिक समृद्ध किया है । प्राकृत के दाय को प्रपभ्रंश जनभाषा ने प्रच्छी तरह सुरक्षित रखा है । प्राध्यात्मिक जीवन की जितनी अनुभूतियां इस अपभ्रंश साहित्य में हैं, उतनी ही लोक संस्कृति की छवियां भी इसमें कित हैं। भारतीय साहित्य की एक सुदीर्घ परम्परा का इतिहास प्रपभ्रंश - साहित्य में है 131 मध्ययुग में जैनाचार्यों ने भारत की प्राधुनिक श्रार्य भाषाओं को अपनी रचनाओं से समृद्ध किया है । स्वभावतः उनमें प्राकृत, अपभ्रंश भाषात्रों का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । वस्तुतः आधुनिक भाषाओं का पोषण ही उनसे हुआ है । राजस्थानी भाषा में अपरिमित जैन साहित्य लिखा गया है । 32 राजस्थानी भाषा ध्वनि परिवर्तन और व्याकरण दोनों की दृष्टि से मध्ययुगीन भाषात्रों से प्रभावित हैं 133 उसका शब्द एवं धातुकोश प्राकृत अपभ्रंश से समृद्ध हुआ है । कुछ क्रियाए द्रष्टव्य हैं प्राकृत घड़इ खण्डइ किदो राजस्थानी प्राकृत जांचइ घड़ खांडे कीधो For Private & Personal Use Only राजस्थानी जांचे धारे होसी धारइ होसइ महावीर जयन्ती स्मारिका 77 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326