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श्रमण शब्द की उपरि व्याख्या के अतिरिक्त सकता है। इसी कारण उन्होंने श्रम की महत्ता यदि व्याकरण सम्मत अर्थ प्ररिप्रेक्ष्य में भी श्रमण प्रतिपादित की है और श्रम को अपने जीवन में संस्कृति के उन्नायक भगवान महावीर के जीवन अक्षरशः उतारा था। तभी वे "महासमरण" के की घटनाओं का मूल्यांकन किया जाये तो भी महनीय पद के यथार्थ अधिकारी बने । "श्रमण सस्कृति" अपनी गरिमामयी अर्थवत्ता से अलग नहीं होती है । श्रमण संस्कृति दूसरों को
श्रम का प्राध्यात्मिक अर्थ
अ कष्ट देने में और स्वतः सुख के उपभोग में विश्वास कुछ विद्वतजन 'श्रम' शब्द का प्राध्यात्मिक नहीं करती है अपितु इसके विपरीत "स्वतः के अर्थ 'तप" करते हैं। उन्होंने सात्विक श्रम को श्रमसाध्य फल प्राप्ति'' के प्रमोघ मंत्र के प्रति तपश्चर्या माना है। उनके मतानुसार व्यक्ति तप पूर्ण निष्ठा रखती है। व्यक्ति उति के चरम द्वारा शरीर को तपाता है, कसता है और वही सोपान पर उसी समय पहुंच सकता है जब वह
श्रमण पद का अधिकारी होता है। जैन दर्शन में प्रोस्थावान होकर श्रम करे, परावलंबन का हिमायती तप का प्रथ कवल "उ
तप का अर्थ केवल "उपवास" या मात्र ध्यान न बनकर स्वावलबन को जीवन का प्रादर्श माने। लगाना नहीं है अपितु "तप" शब्द का एक विशिष्ट पालस्यमयी जीवन से सदा दूर रहे अन्यथा विस्तृत अर्थ है जो कि जीवन की प्रत्येक समस्या "श्रमण" होकर के भी व्यक्ति "पापी हो का हल प्रस्तुत कर सकता है । अतः व्यक्ति प्राध्या. जायेगा।
त्मिक उन्नति हेतु तप का सम्बल ले यही जैन दर्शन
का अभिप्राय है। यह अवश्य है कि तप के साथ पावापुरी के प्रतिम प्रवचन में तो भगवान अन्य नैतिक आस्थाये भी जुडी हैं जिन्हें मानना महावीर की स्पष्ट उक्ति है
व्यक्ति के लिए प्रावश्यक है। इस प्रकार तप और "जे कई उ पव्वइए, निदासीले पगामसों। श्रम की एकरूपता सिद्ध होती है । भोच्चा पिच्चा सुहं सुप्रइपावसमणे त्ति वच्चई ।।
कर्म और श्रम जो व्यक्ति प्रवजित होकर भी रात दिन निद्रा
'श्रम' शब्द की अर्थवत्ता विवेचन पश्चात् यह लेता रहता है, प्रालस्य में सदा प्रामग्न रहता है और खा पीकर मस्त रहता है वह चाहे श्रमसा ही स्पष्ट है कि "श्रम' का सीधा संबंध व्यक्ति के
'कर्मभाव' से है। व्यक्ति जैसा कर्म करेगा फल भी क्यों न हो ऐसे श्रमहीन श्रमण "पापी श्रमण"
उसे वैसा ही मिलेगा। कर्म करने का श्रम ही कहलाते हैं।
व्यक्ति को उन्नति या पतन के मार्ग पर ले जाने में श्रम की प्रतिष्ठा में इससे अधिक सुन्दर और समर्थ है। यदि व्यक्ति का श्रम उदात्तमयी भावना महनीय कथन और क्या संभव है। महावीर ने से होता है तो श्रम शील का प्राध्यात्मिक कल्याण जीवन में जो कुछ अनुभव किया उसे शब्दों में संभव है किन्तु इसके विपरीत भावना से प्रेरित अभिव्यक्त कर प्राणीमात्र को सचेत किया है कि श्रम व्यक्ति को पतनोन्मुख कर सकता है । इसी जीवन की सार्थकता "श्रम' में ही है । "श्रम" ही कारण भगवान महावीर श्रम के साथ उदात्तमयी एक मात्र माध्यम है जिससे प्रारणो अपने गन्तव्य भावना के भी हिमायती थे। उनकी भावना थी पर पहुंच सकता है । बाह्याडंबर एवं ग्रालस से जन कल्याण की। उनकी इसी भावना के कारण मनुष्य चाहे भिक्षु का चोगा क्यों न पहिन ले किन्तु ही प्रबुद्ध विचारक प्राचार्य समन्तभद्र ने महावीर वह यथार्थ मे "श्रमण" पद का अधिकारी नहीं हो के उदात्तमय श्रम को सर्वोदय शासन कहा है
महावीर जयन्ती स्मारिका 17
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