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‘वादी ही है और न सबके अस्तित्व का निषेध ही नहीं । यदि उक्त सिद्धान्त के समर्थन में कोई प्रमाण करता है किन्तु इसने एक-एक बीच का मार्ग विद्यमान नहीं है तब तो यह सिद्धान्त ठीक नहीं चुना 112 नागार्जुन की माध्यमिक कारिका के और यदि इस सिद्धान्त के समर्थन में कोई प्रमाण अनुसार शून्यता ही परम है। ससार और निर्वाण विद्यमान है तो सब कुछ शून्य कसे कहा जा सकता या शून्यता में कोई अन्तर नहीं है। शून्यता या है ? 14 प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है-अन्यवादी परमसत्ता उपनिषदों के निर्गुण बुद्ध के समान है। तो प्रमाणादि को मानते हैं, इसलिए अपने सिद्धान्तों इस में न तो प्रारम्भ है, न अन्त है, न चिरता है, को सिद्ध कर सकते हैं, परन्तु शून्यवादी उन परन प्रचिरता है, न एकता है, न अनेकता है, न वादियों के समान अपने शून्यवाद को सिद्ध अन्दर आना है, न बाहर जाना। सारतः केवल नहीं कर सकता; क्योंकि जिससे सिद्धि अनारम्भमात्र है जो शून्यता का पर्यायवाची है। हो सकती है ऐसे प्रमाणादि को यह झूठा अन्यत्र भी वह लिखते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पाद मानता है । यदि शून्य वादी प्रमाण का ही शून्यता है। शून्यता प्रारम्भ का उल्लेख करते आश्रय लेकर अपने सिद्धान्त की सिद्धि करे तो हुए भी मुख्यतः वह मध्यम मार्ग है जो अस्तित्व इसका शून्यतामय सिद्धान्त कोष करने लगेगा।
और अनस्तित्ल के दो परस्पर विरोधी छोरों से क्योकि प्रमाण का आश्रय लेने से प्रमाण पदार्थ दूर है। शून्यता वस्तुओं का सापेक्ष अस्तित्व सिद्ध हो जाता है इसलिए शून्यता नहीं रह सकती है या एक प्रकार की सापेक्षता है। प्रो० है। हे भगवन् ! अापके मत के साथ ईर्ष्या रखकर राधाकृष्णन् के शब्दों में शून्यता का अर्थ माध्य- अपने नए-नए मतों का निरूपण करने वालों ने क्या? मिकों के अनुसार सम्पूर्ण और परम अस्तित्वहीनता अच्छा कहा है, अर्थात ऐसा निरूपण क्यिा जिसका नहीं है, परन्तु सापेक्ष सत्ता है। माध्यमिकों के सिद्ध होना ही कठिन है ।15 तत्वज्ञान में शन्यता की प्रधानता है, अतः उसे बौद्ध : शून्यता समर्थक प्रमाण से अतिरिक्त शून्यवाद कहते हैं। माध्यमिक कारिका में दो प्रकार शेष सब कुछ शून्य रूप है। के सत्यों का उल्लेख है (1) संवृति और ( ) . जैन : तब तो प्रमाण की सहायता से शिक्षित परमार्थ । संवृति का अर्थ वह प्रज्ञान अथवा भ्रान्ति किया जाने वाला व्यक्ति भी शून्यरूप हुआ और है जो वस्तु जगत् को घेरे हुए हैं और मिथ्याभास उसकी शिक्षा पर व्यय किया गया श्रम व्यर्थ पैदा करती है। परमार्थ का अर्थ है कि सांसारिक गया।18 वस्तुयें एक भ्रान्ति या प्रतिध्वनि की भांति बौद्ध : उक्त रूप से शिक्षित किया जाने वाला अस्तित्वभरी है। परमार्थ सत्य संवृति सत्य को व्यक्ति भी अशून्य रूप है । पाए बिना नहीं हो सकता। संवृति सत्य साधन है जैन : तब तो आपके न चाहने पर भी अनेकों तो परमार्थ सत्य साध्य । इस प्रकार से सापेक्ष वस्तुयें प्रशून्य रूप सिद्ध हो गई क्योंकि प्रश्न करने दृष्टिकोण से प्रतीत्य समुत्पाद सांसारिक घटनाओं वाले व्यक्तियों की संख्या अनेक हो सकती है ।17 का अर्थ दे सकता है, परन्तु परमार्थ दृष्टि से सब बौद्ध : वे सभी व्यक्ति जो शून्यता समर्थक समय में अनारम्भ ही निर्वाण या शून्यता है।13 प्रमाण को स्वीकार करते हैं तथा वे सभी व्यक्ति
उत्तर पक्ष-(1) शून्यता समर्थक प्रमाण है जिन्हें शून्यता विषयक शिक्षा दी जा रही है, या नहीं ? माध्यमिकों के शून्यवाद सिद्धान्त पर अस्तित्वशील हैं। अन्यवादियों को प्रापत्ति है। वे पूछते हैं कि शून्य- जैन : हम कह ही चुके हैं कि ऐसा मानने पर वाद के समर्थन में कोई प्रमाण विद्यमान है अथवा तो अनेक वस्तुयें प्रशून्य सिद्ध हो गई। 8 शून्यवादी
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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