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हुआ। मुक्त तो वह तब होता जब उसे मुक्ति का सत्य इसी प्रकार से निरर्थक सिद्ध नहीं होते। अर्थ- अभिप्राय ज्ञात होता । उसने तो मात्र इस प्रकार का किया गया सारा श्रम-परिश्रम व्यर्थ शाब्दिक सत्य को सीखा है और उसी का गाना चला जाता है। हमें परा-प्रदेश की प्रतीति को दुहराना वह आवश्यक समझता है।
उत्पन्न करना होगा। प्रभु बन करके प्रभु की क्या हमारे जीवन में नित्य व्यवहृत शाब्दिक उपासना सर्वथा कल्याणकारी होती है।
(1)
ब्रह्म कहो तो मैं नहीं, क्षत्री हूँ पुनि नांहि । वैश्य शूद्र दोऊ नहीं, चिदानन्द हूँ माहि ।।
(2) मधुर वचन बोलो सदा, करो न मन अभिमान । क्षमा दया भूलो नहिं, जो चाहो कल्याण ॥
(3) लोभ पाप को बाप है, क्रोध क्रूर जमराज । माया विष की वेलरी, मान विषम गिरिराज ।।
(4)
-डा० गोपाल राठौड़
जिसने पाया प्रेम जगत में वह सच्चा धनवान है, जिसने प्रेम दिया जग भर को वह सच्चा इन्सान है। सच्चा धर्म वही जो चलता लेकर दीपक प्रेम का, प्रेम पथिक के चरणों पर झुकता पाया भगवान है। रुदन सदा को खो जाता है, मुसकानों के गांव में, जितनी पावन धार गंग की, उतना पावन प्यार है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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