________________
प्रदान करने में सर्वथा असमर्थ है, बल्कि वह तो दुःख के जनक राग और द्वेष को और बढ़ावा देती है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भौतिक जगत् मूल्य रहित है या भौतिकता मूल्य प्राप्ति में साधक नहीं है; कितने ही मूल्य भौतिकता के माध्यम से ही प्राप्त होते हैं किन्तु फिर भी वह (भौतिकता) परम श्रेयस् (ult mate good ) की प्राप्ति में बाधक है अतः हेय है ।
प्रश्न उठता है कि तब श्रात्मा के लिये, प्राणी के लिये उपादेय क्या है ? उसे सुख की प्राप्ति, परमश्रेयस की प्राप्ति वहां से हो सकती है ? कैसे हो सकती है ?
आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है किन्तु सांसारिक प्रारणी पुद्गल कर्मों से जकड़ा हुआ है, पुद्गल द्रव्य श्रात्मद्रव्य से सर्वथा भिन्न एक पृथक् द्रव्य है; श्रीर दो नितान्त विरोधी द्रव्यों का संयोग कदापि सुखकारी नहीं हो सकता । इस संयोग से श्रात्मा स्वभाव भूल गई है, उसके ज्ञान, दर्शन आदि गुण मलिन पड़ गये है, वह अशुद्धावस्था में है । प्रत्येक वस्तु जब अपने शुद्ध रूप में होती है तभी वह मूल्यवान होती है, उपादेय होती है और अपने लक्ष्य को भी तभी प्राप्त कर सकती है। दूध को ही लें जब वह युद्ध होता है, जलमिश्रित नहीं होता तभी वह उपादेय गुणकारी व मूल्यवान होता है और तभी वह अपने लक्ष्य में भी सफल होता है | अतः श्रात्मा भी जब अपने शुद्ध रूप में स्थित होगी तभी परम आनन्द का अनुभव कर सकेगी, इसके लिये उसे स्वरूप जानना होगा, अपनी आत्मा में ही लीन हो 'पर' से ममत्व त्यागना होगा 'स्व-पर' भेद विज्ञान को जानना होगा तभी वह नैसर्गिक सुख को प्राप्त कर सकती है । वस्तुतः भौतिकता निराकुल सुख की प्राप्ति में बाधक है, क्योंकि सुख तो आत्मा का अपना गुरण है, किन्तु वह पौद्गलिक कर्मों से प्रावृत होने के कारण मलिन हो रहा है, श्रतः जब तक श्रात्मा के साथ भौतिकता अथवा पौगलिक कर्मों का किंचित् श्रंश भी रहेगा तब तक मात्मा सुख प्राप्त नहीं कर सकती । जिस क्षण
1-14
Jain Education International
श्रात्मा का भौतिकता से साथ छूट जायेगा उसी क्षण सुख का अजस्र स्रोत फूट पड़ेगा श्रीर शान्ति की अविरल धारा बह निकलेगी । श्रात्मा अपने सहज रूप में, निज रूप में, स्वभाव में स्थित हो जायेगी; वही स्थिति तो मोक्ष है, मुक्ति है। वहां आकुलता का, राग-द्वेष का प्रवेश नहीं है । वहां श्रात्मा के सब बंधन निबंन्ध हो जाते हैं, वहां न तर्क की गति है, न उसे हमारी भौतिकता से पगी हुई बुद्धि ही ग्रहण कर सकती | अर्थात् परमश्र ेयस् की प्राप्ति 'प्राध्यात्मिकता' से ही हो सकती है, भौतिकता से नहीं । इसीलिये भारतीय मनीषा हजारों वर्षों से भौतिकता के प्रति असन्तोष प्रकट करती प्रा रही है. इसी कारणवश उसे (भारतीय मनीषा को) घोर निराशावादी कहा जाता रहा है; किन्तु ऐसा कहना नितान्त एकांगी दृष्टिकोण का परिचायक है क्योंकि दूसरी ओर वे शाश्वत सत्य व पूर्ण सुख के राज्य में जाने का मार्ग भी तो प्रशस्त करते हैं, जो परम श्राशा का प्रतीक है ।
साधारणतः प्रत्येक प्राणी के प्रन्तस् में ऐसे अपरिमित सुख की प्राप्ति के प्रति सन्देह उत्पन्न होता है किन्तु जैन दार्शनिक तो आत्मा की नैसर्गिक अनन्त सामर्थ्य में गम्भीर विश्वास रखते हैं, अतः वे प्राणी मात्र को श्राशा का सन्देश व स्वावलम्बन की प्रशसनीय शिक्षा देते हैं और सुख प्राप्ति का पथ भी उद्घाटित करते हैं। श्रावश्यकता है उस पथ के पथिक बनने की, एक बार पथ पर बढ़ कर देखें तो, सन्देश स्वमेव विश्वास में, अनुभव में परिणत हो जायेगा । केवल प्रयत्न की आवश्यकता है, प्राध्यात्मिकता की शरण जाने के बाद सुख की प्राप्ति निश्चित है । अतः यदि हम वास्तव सुख चाहते हैं तो हमें श्राध्यात्मिकता ही की शरण में जाना होगा, इसी से हमारे गन्तव्य, हमारी मंजिल 'मोक्ष' की प्राप्ति हो सकेगी अन्यथा यह विशाल भौतिक जगत् ही हमारी नियति बन कर रह जायेगा, जहां हम बहुरुपिये की भाँति एक के बाद एक भेष धारण करते रहेंगे, जन्म-धारण करते रहेंगे और मृत्यु की गोद में जाते रहेंगे। 2
में
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org