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लिये विकास का नवमार्ग भी प्रशस्त किया। का द्योतक है । समवशरण में पुरुष के बराबर उन्होंने प्राणी मात्र को करुणा व समानता का मूल नारी को भी भगवान् की वाणी सुनने का समान मन्त्र दिया । उनका जीवो और जीने दो" का स्थान था। पुरुष की भांति स्त्री भी महावन अंगीमहान् सन्देश इसी दृष्टि का परिचायक है । उनकी कार कर अपने कर्मों का प्राव रोकने की अधिअहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है । अत्याचारी को कारी है । भगवान् महावीर ने अपने उपदेशों के दण्ड देना हिंसा नहीं है उनकी अहिंसा क्षमा में द्वारा “नारी समानता' पर बल दिया है। निहित है । इसी अहिंसा के सिद्धान्त ने तत्कालीन
भगवान महावीर का व्यक्तित्व केवल जैनियों मानव समुदाय का सफलतापूर्वक मार्ग प्रशस्त किया था और इसी सिद्धान्त की आज के मानव
के लिये ही नहीं, अपितु समूचे विश्व के लिये एक को भी प्रत्यधिक आवश्यकता है क्योंकि आज एक
प्रादर्श है । प्रापके व्यक्तित्व में चन्द्र की शीतलता,
वन की उदासीनता, सागर की गम्भीरता, हिमालय राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को हडपना चाहता है । एक मानव दूसरे मानव को अविश्वास की दृष्टि से देखता
की उच्चता तथा प्राध्यात्मिकता को वीरता है । क्षण मात्र में मानव सभ्यता को ही नष्ट कर
विराजमान है । प्रेम उनके चरणों में अठखेलियां सकने में समर्थ अनेकानेक हथियारों का प्राविष्कार
करता है । दया मुस्कराती है, करुणा द्रवीभूत हो चुका है । युद्ध तथा हिंसा द्वारा शक्ति प्राप्ति
होती है एवं श्रद्धा स्वयं नतमस्तक होती है।
आपके व्यक्तित्व पर छाये हुये प्रखण्ड तेज को देख का परीक्षण असफल हो चुका है। संसार के बद्धि
कर प्रांखें स्वतः चकाचौंध हो जाती हैं । मस्तक जीवी स्थायी शान्ति की खोज में प्रयत्नशील हैं।
भुक जाता है. श्रद्धा उमड़ पड़ती है । आँख बन्द ऐसे समय में भगवान महावीर का 'अहिंसा परमो
कर प्रापका ध्यान करने पर असीमित मानन्द की धर्मः" का सिद्धान्त ही विश्व में शान्ति स्थापित कर
प्राप्ति होती है । ऐसा लगता है मानो अहिंसा का सकता है।
अस्त्र लिये हुये सत्य का तप करते हुये अड़िग भगवान् महावीर का दूसरा सिद्धान्त "अपरि
- मौन तपस्वी सम्मोहन की वंशी का स्वर गुजारित ग्रहवाद" हमारी समाजवाद की भावना को बल करने के लिये समस्त संसार की हृदयतन्त्री की देता है। प्रावश्यकता से अधिक वस्त का परि
वीणा के तार झंकारने के लिये सन्नद्ध एकाग्रचित त्याग ही अपरिग्रह है। "अनेकान्त' भी भगवान् एवं प्रतिज्ञाबद्ध प्रासीन हैं। महावीर के मुख्य सिद्धान्तों में एक है । "नारी पुरुष समानता" के सिद्धान्त के भी प्राप हामी थे। हमारा जयन्ती मनाना तभी सार्थक होगा एक बार भगवान महावीर भ्रमण करते-करते जब हम भगवान् महावीर की अहिंसा को अपने कौशाम्बी नगरी में प्राहार के लिये निकले । चन्दना अन्तरंग में ढालें, तथा "जीवो और जीने दो" के उसी नगर में एक सेठ के यहाँ बन्दी थी। उसको सन्देश को यथार्थ रूप प्रदान करें, महिंसा के मार्ग भावना भगवान् को माहार देने के लिये हुई और पर चलें, जिससे विश्व को एक नया रूप मिले एवं उस भावना के फलस्वरूप उसकी बेड़ियां टूट पड़ी महावीर के सन्देशों को जन-जन तक पहुंचावें। पौर उसने भगवान को प्राहार देकर पुण्य बंध तभी हमारा जीवन सार्थक होगा तथा समाज एवं किया । भगवान् का समवशरण भी नारी समानता राष्ट्र उन्नत होगा।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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