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लिए घातक बनना एक पाप व अधर्म माना अच्छा होगा। इस प्रकार जन्म-जन्मातर तक गया है।
साधना करते-करते उसको मोक्ष प्राप्त हो जायगा।
मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना इस सम्बन्ध में यहां यह उल्लेखनीय है :--
है क्योंकि मोक्ष मिलने पर ही मनुष्य जन्म और जइ मज्झ काररणा एए, हम्मंति सुबहू जिया ।
मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो सकता है। मनुष्य का न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई ॥
प्रयत्न यह होना चाहिये कि उसे पुनः जन्म धारण --उत्तराध्ययन सूत्र 22, 19 नहीं करना पड़े क्योंकि बार-बार जन्म धारण करने
से मनुष्य अनेकानेक कष्टों का भागी होता है । यदि मेरे कारण से जीवों का घात होता है, तो यह इस लोक और परलोक के लिए किवित
उपनिषदों के अनुसार मोक्ष का सिद्धांत श्रेयस्कर नहीं है।
निरूपित करने में बार-बार जीवन के दुःखमय होने
की बात कही गयी है, इसलिये तात्कालीन समाज न हु पाणवहं अणुजाणे,
में एक प्रकार के निराशावाद की भावना का प्रसार मुच्चेज्ज कयाई सव्वदुक्खाणं । होने लगा और लोग जीवन में उस उत्साह को --उत्तराध्ययन सूत्र 8, 8 खोने लगे जो वेदकालीन लोगों की प्रमुख विशेषता
थी। उपनिषदों ने सन्यास और वैराग्य की भावना प्राणियों के वध का अनुमोदन करने वाला
को प्रेरित किया। अतएव पहले जहां लोग मनुष्य कभी भी सब तरह के दु.खों से नहीं छूट
सांसारिक सुखों के यो के लिये डट कर परिश्रम सकता ।
करने में प्रानन्द मनाते थे कहां प्रब गृहस्थाश्रम को जैन धर्म की प्रमुख विशेषता अहिंसा ही मानी छोड़ कर असमय ही वैराग्य और सन्यास धारण गई है। यही अहिंसा विश्व में शांति स्थापित करती करने लगे। है। यही अहिंसा विश्व में मैत्रिक सम्बन्ध
परिग्रह से मानव जीवन का निर्वाह गतिशील स्थापित करती है। जीव मात्र के प्रति सतत
रहता है, इसके प्रभाव में मानव जीवन की सहयोग की प्रेरणा देती है। इसी के प्राधार पर जीव अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार ही सुख व
दैनिकोपयोगी वस्तुएं जुटाना एक समस्या बन
जाती है। परिग्रह प्रत्येक मनुष्य के लिये अत्यन्त दुःख को भोगता रहता है । अहिंसा के आधार पर
प्रावश्यक है चाहे व गरीब हो या अमीर, किन्तु मानव स्वावलम्बी बनता है । स्वतंत्रता का अनुभव
आवश्यकता से अधिक परिग्रह एक ही स्थान पर करता है, और उसे अहिंसा के माध्यम से ही
स्थिर रह जाता है तो उससे एक और हिंसा का प्रात्मिक शांति प्राप्त होती है।
जन्म धीरे-धीरे होने लगता है, और वहीं दूसरी ओर उपनिषदों के अनुसार भी कर्म-फलवाद सामान्य जन-साधारण के लिये एक समस्या सिद्धांत यही है । मनुष्य जिस प्रकार का कर्म करता उत्पन्न हो जाती है। है उसे उसके अनुसार परिणाम भुगतना ही इस सम्बन्ध में यहां यह उल्लिखित है-- पड़ते हैं । अत: मनुष्य से यह अपेक्षा की गई हैं कि "अपरिग्गहो अरिगच्छे'-समयसार, 212 वह अपने कर्मों को सुधारे ताकि उसका अगला इच्छा रहित होना अपरिग्रह है। जन्म अच्छा हो । जब दूसरे जन्म में वह अच्छे कर्म "अप्पारणमणो परिग्गहें"-समयसार, 207 करेगा तो उसका अगला तीसरा जन्म भोर भी वास्तव में प्रात्मा ही अपना परिग्रह है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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