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सिद्धान्त समझने की भूल की जाती रही है । वस्तुतः दूसरे यह कि वाक्य या कथन अनेकान्तिक नहीं क्रिया के सम्बन्ध में उसका अर्थ इतना ही है कि होता अपितु वस्तुतत्व एवं उसका ज्ञान भनेकान्तिक विधान या निषेध निरपेक्ष रूप से नहीं हुआ है होता है । कोई भी कथन नय या विवक्षा से रहित अर्थात् अन्य अनुक्त एवं प्रव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं होता। अत: प्रत्येक कथन ऐकान्तिक होता है । नहीं हुअा है। यहां उसका अर्थ है पविरोध पूर्वक वह सम्यक् एकान्त होता है। कथन केवल प्रविरोधी कथन । जिसे हम हिन्दी भाषा में भी शब्द से लक्षित एवं सापेक्षक होते हैं अनेकान्तिक नहीं। कर सकते हैं। अत: क्रिया के सम्बन्ध से स्यात का अर्थ है प्रविरोधी और सापेक्ष कथन । विधेय पद के यदि हम स्यात् को कथन की अनेकान्तता का सम्बन्ध में स्यात् शब्द का अर्थ होगा 'अनेक में एक' सूचक भी मानें तो यहां कथन की अनेकान्तता से अर्थात् कथित विधेय उद्देश्य के अनेक सम्भावित हमारा तात्पर्य मात्र इतना ही होगा कि वह विधेयों में एक है। जब हम यह कहते हैं कि स्यात् (स्यात) वस्तुत्व (उद्देश्यपद) की अनन्तधर्मात्मकता
डा शिशिर ऋतु का बना हमा है, तो हमारा को दृष्टि में रखकर उसके अनुक्त एवं प्रव्यक्त प्राशय यह होता है कि घडे के सम्बन्ध में जिस धर्मों का निषेध नहीं करते हुए निश्चयात्मक ढंग से अनेक विधेयों का विधान या निषेध किया जा किसी एक विधेय का सापेक्षित रूप में किया गया सकता है उसमें यहां एक विधेय शिशिर ऋतु का विधान या निषेध है।' किन्तु यदि कथन की
इसका विधान किया गया है। एक अनेकान्तता से हमारा प्राशय यह हो कि वह उद्देश्य तकं वाक्य में एक ही विधेय का विधान या निषेध पद के सन्दर्भ में एक ही साथ एकाधिक परस्पर होता है । यदि हम एकाधिक विधेयों का विधान या विरोधी विधेयों का विधान या निषेध है अथवा निषेध करते हैं तो ऐसी अवस्था में वह एक तर्क किसी एक विधेय का एक ही साथ विधान और वाक्य न होकर, जितने विधेय होते हैं, उतने ही तर्क निषेध दोनों ही है तो यह धारणा भ्रान्त है और वाक्य होता है। उद्देश्यपद अर्थात् वह वस्तुत्व, जैन दार्शनिकों को स्वीकार्य नहीं है। इस प्रकार जिसके सन्दर्भ में विधेय का विधान या निषेध किया स्यात् शब्द की योजना के तीन कार्य है, एक कथन जा रहा है. के सम्बन्ध में स्यात् शब्द अनन्त धर्मा- या तर्क वाक्य के उद्देश्य पद की अनन्त धर्मात्मस्मकता का सचक है। इस प्रकार स्यात् शब्द कता को सचित करना, दूसरा विधेय को सीमित उद्देश्य की अनन्त धर्मात्मकता का, विधेय के अनेक या विशेष करना और तीसरे कथन का सोपाधिक में एक होने का तथा क्रिया के अविरोधी और कथन (Conditional) एवं सापेक्ष (Relative) बनाना के सापेक्षिक होने का सूचक है । इस प्रकार प्रत्येक है। यद्यपि जैन ताकिकों ने स्यात् शब्द के इन प्रर्थों सन्दर्भ में उसके अलग अलग कार्य हैं। वह उद्देश्य को इंगित अवश्य किया है तथापि इसमें अपेक्षित के सामान्यत्व (व्यापकता) विधेय के विशेषत्व स्पष्टता नहीं आ पायी क्योंकि दोनों के लिए एक और क्रिया के सापेक्षत्व का सूचक है। यद्यपि ही शब्द प्रतीक स्यात् का प्रयोग किया गया था । प्राचार्य समन्तभद्र ने वाक्येषु शब्द का जो प्रयोग स्यात् को अनेकान्तता के द्योतक के साथ-साथ किया है उसके प्राधार पर कोई यह कह सकता है विवक्षित अर्थ का विशेषण (गम्यं प्रति विशेषणकि स्यात् शब्द को कथन की अनेकान्तता का प्राप्त मीमांसा 103) एवं कथंचित् अर्थ का प्रति. द्योतक क्यों नहीं माना जाता । मेरा विनम्र निवेदन पादक (कथंचिदर्थ स्यात् शब्दो निपात:-पंचास्तियह है कि प्रथम तो ऐसी स्थिति में "वाक्येषु" के काय टीका) भी माना गया है । प्रतः उपरोक्त स्थान पर "वाक्यस्य" ऐसा प्रयोग होना था। विवेचना प्रप्रामाणिक एवं प्राचीन ग्रन्थों के आधार
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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