________________
जैनधर्मानुसार कोई भी मानव तदनुरूप प्राचार द्वारा कर्म बन्धन से मुक्त हो सिद्ध बन सकता है। वह आत्मा की सर्वोच्च शुद्ध अवस्था है । किन्तु प्रत्येक मोक्षगामी तीर्थङ्कर नहीं हो सकता 148 कर्मप्रकृतियों में तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध कर्मभूमि के मनुष्य के केवली या श्रुतकेवली के पाबमूल में होता है । संसार के उद्धार तथा दु.खी जीवों को सन्मार्ग बता कर उनके कल्याण करने की उस्कट भावना ही अतिशय पुण्यशाली तीर्थङ्कर प्रकृति के बंध का कारण है। सेवक ही स्वामी बन सकता है। दर्शन विशुद्ध आदि सोलह भावनाओं के चिन्तवन करने तथा अपायविचय नामक धर्मध्यान होने पर महान् पुण्यशाली तीर्थङ्कर प्रकृति का मानव होकर बंध होता है । प्रतः अपना कल्याण चाहने वाले में पर कल्याण की तीव भावना होना आवश्यक है।
प्र० सम्पावक
जैन धर्म और कर्म सिद्धांत : तीर्थंकर की प्रकृति का महत्व
* परमपूज्य प्रायिकारत्नश्री ज्ञानमती माताजी शरीरी प्रत्येकं भवति भुवि वेधाः स्वकृतितः। उपार्जित करता है तब यह सम्यक्त्व रूपी विधि को विधत्ते नानाभूपवनजलबन्हिद्र मतनुम् । भेदाभेद रूप रत्नत्रय को प्राप्त करके स्वयं ही
स्वयं में स्थित हो जाता है तभी कृतकृत्यपूर्ण स्वस्थ त्रसो भूत्वा भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलम् ।
होता हुआ शिवमय हो जाता है । स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्य: शिवमयः ।।
जैन सिद्धांत के अनुसार विश्व के नेता परम. इस संसार में प्रत्येक शरीरधारी प्राणी स्वयं तीर्थंकर बनने के उपायों को समझने वाला और ही ब्रह्मा है क्योंकि प्रत्येक जीव अपने-अपने शुभ- तदनुरूप प्रवृत्ति करने वाला कोई भी व्यक्ति अपने अशुभ कार्यों के द्वारा स्वयं अपनी-अपनी सृष्टि का पाप को उस महान् पद का अधिकारी बना सकता निर्माण करता रहता है। कभी यह जीव अनेक है। जो भव्यजीव सच्ची करुणामयी भावना से प्रकार की पृथ्वी के शरीर-माणिक्य, हीरा, मरकत जगत के उद्धार की चिंता करते हैं सचमुच में वे ही वैडूर्य प्रादि रत्नरूप को धारण कर लेता है. कभी महापुरुष प्रनंत प्राणियों के उदार में समर्थ ऐसे यह जीव पवन के शरीर को, कभी जल के शरीर तीकर बन जाते हैं। को, कभी अग्नि के शरीर को और कभी नाना
श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलदुःखदावप्रकार के फल पुष्प, लता, वृक्षादि रूप वनस्पति । के शरीर को धारण करता रहता है। यही जीव स्कंधे चंक्रम्यमाणानति चकितमिमानुद्धरेयं वराकान् । कभी त्रस होकर द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय अथवा इत्यारोहत्परानुग्रहरसविलसद्भावनोपात्तपुण्यपंचेंद्रिय पर्याय को धारण करता है। कदाचित् प्रक्रांतरेव वाक्यः शिवपथमूचितान शास्ति योऽहन बड़ी मुश्किल ये कभी यह कुशल-पुण्य कर्म को
स नोऽव्यात् ॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
1-29
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org