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भगवान् महावीर नाम निक्षेप से ही नहीं भाव निक्षेप से भी महावीर थे । निर्माण प्राप्ति का परम पुरुषार्थ उन्होंने किया था। इसीलिए मे वीर ही नहीं महावीर थे क्योंकि ऐसा पुरुषार्थ वह ही कर सकता है जिसमें अद्भुत अतुल्य शक्ति हो । मानव जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण अर्थात प्रात्मा की परमानन्दमयी स्थिति को उन्होंने राग द्वेष से रहित हो, वीतराग बन प्राप्त किया था। बिना राग के नष्ट हुए कोई भी मुक्त नहीं हो सकता । इसीलिए जैनधर्म में सरागता तथा बाहय मेश, प्रारम्बर प्रादि की पूजा नहीं है।
प्र. सम्पादक
भगवान् महावीर, वीतरागता और निर्वाण
डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच
यह सच है कि माज से लगभग 2600 वर्ष वणित किया जाता है । उन में तथ्य की अपेक्षा पूर्ण चैत्र शुक्ला प्रयोदशी के दिन महावीर या वर्द्ध- भक्ति का अधिक योग होता है । फिर घटनाए तो मान का जन्म हुआ था, किन्तु इससे अधिक सत्य सबके जीवन में भिन्न भिन्न होती हैं। किन्हीं घटयह है कि हम जिस महावीर की उपासना, पर्चना नामों के घटने के कारण कोई महान् बनता हो, करते हैं, वह क्षत्रियकुमार न होकर वीतरागता का तो केवल घटनाएं ही रह जायेंगी, व्यक्तित्व निःशेष प्रादर्श था। इस लिये. उनके जीवन और व्यक्ति हो जायगा। चमत्कार-प्रदर्शन करना तो बहुत त्व को हम किन्हीं घटनामों में बांध कर वास्तविक प्रासान है, युक्ति मात्र से चमत्कार दिखलाया जा रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकते। घटनामों में भी सकता है । किन्तु प्रादर्श प्राप्त करना सचमुच कठिन कहा जायगा, वह बाहर से समझा हुआ स्थूल होता है। इससे यह स्पष्ट है कि हजारों वर्षों के होगा। उस बाह्य जीवन की नकल कर हम प्रसल पश्चात् भी हम महावीर को इसलिए नहीं मानते महावीर को नहीं खोज सकते । यही कारण प्रतीत कि वे चमत्कारी थे, उन में कोई अलौकिक सिद्धि होता है कि जैन पुराण-साहित्य में महावीर के थी, देवता लोग पाकर उनकी स्तुति-वन्दना करते जीवन से सम्बन्धित सम्पूर्ण घटनाएं नहीं मिलती। थे या वे स्वयं आकाश में गमन करते थे। ये बातें घटनाओं से हम केवल इतना ही जान पाते हैं तो एन्द्रजालिक में भी देखी जा सकती हैं। इसीकि 'क्या हुमा', क्यों और कैसे हुमा--यह उन लिये इन चमत्कारों, अतिशर्यो, पाश्चर्यो या गैभव रेखाओं के चित्रण से परे की बात है। प्रतएव पूर्ण ऋद्धियों के कारण वे महान् नहीं हैं। उनकी महापुरुषों के जीवन की जो भी घटनाएं बताई महत्ता के दो ही प्रमुख लक्षण हैं-वीतरागता और जाती हैं, वे केवल उनके महत्त्व प्रदर्शन के लिए सज्ञता। वीतरागता ही उनका परम प्रादर्श था, होती हैं अथवा उनको ही प्रतिशयोक्ति पूर्वक जिसे वे उपलब्ध होकर स्वयं वीतराग बने और
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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